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124. हे योगी ! यदि तू सर्वोत्तम अस्तित्व (समतामय जीवन) को
प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, (तो) प्रशंसा, आदर (सांसारिक) लाभ, आतिथ्य आदि की कामना क्यों करता है ? क्या इनके द्वारा तेरे लिए सर्वोत्तम अस्तित्व में (प्रवेश
होगा) ? 125. जहां कहीं भी धीर (व्यक्ति) मन से, वचन से या काया से
क्षुद्र (कार्य) किया हुआ (अपने में) देखे, वहां ही (वह) (अपने को) पीछे खींचे जैसे कुलीन घोड़ा लगाम को (देखकर)
(अपने को) तुरन्त (पीछे खींच लेता है)। 126. जो गुणवानों में अनुराग-सहित (होता है), (जो) परम श्रद्धा
से (उनका) अनुसरण करता है, (जो) (उनसे) (सदा) प्रिय वचन बोलता हुआ (रहता है), उस भव्य (सम्यग्दृष्टि) में (गुणीजनों के प्रति) वात्सल्य (होता है)।
127. जैसे जैसे ज्ञानी (ऐसे) असाधारण आध्यात्मिक ज्ञान में लीन
होता है (जो) अत्यधिक आनन्द की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है, वैसे वैसे (वह) नये नये (प्रकार की) अनासक्ति की स्थितियों
(के अनुभव) से आनन्दित होता है। 128. जैसे धागे-युक्त सूई कूड़े में पड़ी हुई भी नहीं खोती है, वैसे
ही संसार में स्थित भी नियम-युक्त जीव (व्यक्ति) बर्बाद नहीं होता है।
129. जिससे तत्व जाना जाता है। जिससे चित्त संयमित किया जाता . . है, जिससे आत्मा शुद्ध की जाती है, वह जिन-शासन में
ज्ञान (है)।
चयनिका ]
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