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( 97 ) । जैसे - जैसे ज्ञानी असाधारण आध्यात्मिक ज्ञान में लीन होता है, वैसे वैसे नये-नये प्रकार की अनासक्ति की स्थितियों के अनुभव से आनन्दित होता है (127)। जैसे जल के संयोग होने पर लवरण विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त ध्यान में विलीन हो. जाता है, उसके जीवन में शुभ-अशुभ कर्म को भस्म करने वाली आत्मानुभवरूपी अग्नि प्रकट होती है ( 160 ) । जैसे दीर्घकाल तक संचित ईंधन को पवन - सहित अग्नि तुरन्त भस्म कर देती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्मरूपी ईंधन को भस्म कर देती हैं (162)। ध्यानी चित्त कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, निराशा, अफसोस प्रादि मानसिक तनावों द्वारा परेशान नहीं किया जाता है ( 161 ) । समरणसुत्तं का शिक्षण है कि आत्मा को गुरु कृपा से समझकर ध्यायी जानी चाहिए ( 147 ) । गुरु और अनुभवी की सेवा, विकृत बुद्धि वाले व्यक्ति का पूर्णरूप से त्याग, स्वाध्याय और एकान्तवास सूत्र के अर्थ का सम्यक् चिन्तन तथा धैर्य - ये सब समता की प्राप्ति में साधन हैं (148) । यहाँ यह समझना चाहिए कि बिना आध्यात्मिक गुरु के ध्यान में प्रगति नहीं होती है । किन्तु, जिसकी गुरु में भक्ति नहीं है, जिसका गुरु के प्रति अतिशय आदर नहीं है तथा जिसको उससे प्रेम नहीं है, उसको अन्धकार में मार्ग मिलना कठिन है ( 17 ) । साधकों के लिए समरणसुत्तं का शिक्षरण है : हे साधक ! यदि तू सर्वोत्तम अस्तित्व ( समतामय जीवन ) को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तो प्रशंसा, आदर, सांसारिक लाभ, आतिथ्य आदि की कामना क्यों करता है ? क्या इनके द्वारा तेरे लिए सर्वोत्तम अस्तित्व में प्रवेश हो सकेगा (124) ? ध्यान की पूर्णता होने पर व्यक्ति अरहंत अवस्था प्राप्त कर लेता है । वह शुद्धोपयोगी बन जाता है ( 141 ) । वह सम्पूर्ण आसक्ति से रहित होता है ( 138, 140 ) । उसके लिए सुख-दुःख समान होते हैं ( 140 ) । उसका सुख श्रेष्ठ,
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[ समरणसुतं
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