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और लोभ सब गुरणों का विनाशक होता है (70)। अतः समणसुत्तं का कहना है कि साधक क्षमा से क्रोध को नष्ट करें; विनय से अहंकार को जीते, सरलता से कपट को तथा संतोष से लोभ को जीते (71)।
साधना में दृढ़ता लाने के लिए आहार, आसन और निद्रा पर विजय प्राप्त करना चाहिए (147)। साधक परिमित एवं ग्रहण करने योग्य आहार को चाहे (149) । जो साधक साधना के लिए हितकारी आहार से, हितकारी में भी सीमित आहार से और सीमित में भी अल्प आहार से सन्तुष्ट होते हैं, उनको चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वे अपने मन के ही चिकित्सक होते हैं (150) । विकृतियों से रहित आवास के कारण तथा नियन्त्रित प्रासन के कारण, अल्प मात्रा में आहार करने के कारण और संयमित की हुई इन्द्रियों के कारण आसक्तिरूपी शत्रु साधक के मन को विचलित नहीं करता है, जैसे औषधियों द्वारा नष्ट किया हुआ व्याधिरूपी शत्रु व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करता है (151).। । ___ध्यान और स्वाध्याय से साधना आगे बढ़ती है और पूर्णता तक पहुँच जाती है। साधकों द्वारा बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के द्वारा परमात्मा ध्याया जाता है (104) । इन्द्रिय-भोग तथा कषायों में संयम-भाव को धारण करके जो ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा प्रात्मा का चिंतन करता है, उसके जीवन में नियम से तप होता हैं (50)। जैसे लगाम के द्वारा घोड़े रोके जाते हैं, वैसे ही ज्ञान से, ध्यान से और तपस्या की शक्ति से इन्द्रिय-विषय और कषाएँ दृढ़तापूर्वक रोकी जाती है (68)। जो व्यक्ति नैतिक-प्राध्यामिक ग्रन्थों का अध्ययन करके श्रुत-साधना में संलग्न होता है, वह मूल्यात्मक ज्ञान को प्राप्त करता है तथा एकाग्रचित्तवाला होता है और वह स्वयं मूल्यों में जमा हुआ रहता है और दूसरों को भी मूल्यों में जमाता है चयनिका ].
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