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________________ में जीता है, तो उसकी शेष आसक्तियाँ भी समाप्त हो जाती हैं। सच है, महासागर को पार करके जो बाहर आया है, उसके लिए गंगा के समान नदियों को भी पार करना सरल हो जाता है (57)। मनुष्यों, देवों और पशुओं द्वारा किए हुए भीषण उपसर्ग के अवसर पर भी जो क्रोध के द्वारा तपाया नहीं जाता है, उस व्यक्ति के जीवन में निर्मल क्षमा होती है (42)। लोभी मनुष्य के लिए कदाचित् कैलाश पर्वत के समान सोने-चाँदी के असंख्य पर्वत भी हो जाएँ, तो भी उनके द्वारा उसकी कुछ भी तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अन्तरहित होती है (48)। जो पूर्ण संतोषरूपी जल से तीव्र लोभरूपी मल-समूह को धोता है, तो उस व्यक्ति के जीवन में निर्मल शौचधर्म होता है (49)। जो व्यक्ति कुटिल बात नहीं सोचता है, कुटिल कार्य नहीं करता है, कुटिल वचन नहीं बोलता है तथा जो निज दोष को नहीं छुपाता है, उसके जीवन में आर्जव (सरलता) धर्म होता है (44)। इसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि साधक के जीवन में विनय का महत्व है। अविनीत के जीवन में अनर्थ होता है और विनीत के जीवन में समृद्धि होती है। इस बात को समझकर साधक विनय को ग्रहण करता है (93)। बौद्धिक उदारता व्यक्ति को संकुचित होने से बचाती है। इसके द्वारा व्यक्ति सत्य के विभिन्न पक्षों को विभिन्न दृष्टियों से देख सकता है । विभिन्न दृष्टियों से वस्तु को समझना अनेकान्तवाद है (166): यह सिद्धान्त साधक के लिए विभिन्न धर्मों में निहित सत्य को समझने में सहायक होता है। अपने में सेवा के सद्गुण को विकसित करने के लिए साधक को आहार-दान, औषध-दान शास्त्र-दान तथा अभय-दान देना चाहिए। यह दान गृहस्थ की विशेषता है। साधक को समझना चाहिए कि क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, अहंकार विनय का नाशक होता है, कपट मित्रों को दूर हटाता है xviii ]. [ समरणसुत्तं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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