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________________ में श्रेष्ठ और व्यापक धर्म नहीं है (85)। जो. अप्रमादी होता है, वह अहिंसक होता है, जो प्रमादी होता है, वह हिंसक होता है (84)। जैसे तुम्हारे अपने लिए दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार दूसरे सब जीवों के लिए जानकर उचित रूप से सब जीवों से स्नेह करो तथा अपने से तुलना के द्वारा उनके प्रति सहानुभूति रक्खो (79)। जीव का घात खुद का घात होता है, जीव के लिए दया खुद के लिए दया होती है; उस कारण से आत्म-स्वरूप को चाहने वालों के द्वारा सब जीवों की हिंसा छोड़ी हुई है (80)। हिंसा से बचने के लिए समणसुत्तं का शिक्षण है कि तू वह ही है जिसको तू मारे जाने योग्य मानता है । तू वही है जिसको तू शासित किए जाने योग्य मानता है। (81)। जैसे जल में उत्पन्न कमल पानी से नहीं लीपा जाता है, उसी प्रकार इच्छाओं के द्वारा जो व्यक्ति नहौं लीपा जाता हैं, उसको हम अहिंसक कहते हैं (55) । आत्मा में रागादि का उत्पन्न न होना अहिंसा है । उनकी उत्पत्ति हिंसा है (82)। अहिंसा के साथ सत्य बोलने का अभ्यास भी महत्वपूर्ण है । जो पर में दुःख-जनक मानसिक स्थिति का कारण है, उस वचन को छोड़कर जो साधु या श्रावक स्व-पर के लिए हितकारक वचन बोलता है उसके जीवन में सत्य होता है (45)। सत्यवक्ता मनुष्य-लोक में माता की तरह विश्वसनीय, गुरु की तरह पूज्य तथा स्वजन की तरह सबका प्रिय होता है (46)। सत्य बोलने में तप होता है, सत्य बोलने में संयम होता है, सत्य बोलना ही सब सद्गुणों का आधार होता है, जैसे मछलियों के लिए आधार जल का भंडार होता है (47) । जैसे एक ओर अहिंसा और सत्य वचन का अभ्यास. सद्गुणों के विकास के लिए आवश्यक है, वहाँ दूसरी ओर कामुकता, क्रोध, लोभ और कुटिलता का त्याग भी व्यक्ति को सद्गुणी बनाता है। यदि व्यक्ति कामासक्ति को पार करके समाज चयनिका ] [ xvii Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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