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साधना का मार्ग व उपलब्धि :
सर्व प्रथम यह समझना चाहिए कि अहंकारी, क्रोध, प्रमादी, रोगी और आलसी (साधना) की शिक्षा के योग्य नहीं होते है, (94) किन्तु जो शुभ प्रवृत्ति वाला है, जो स्नेहशील है, जो दूसरों की भलाई करने वाला है, जो मधुर बोलने वाला है, वह ( साधना की ) शिक्षा प्राप्त करने के योग्य होता है (98) । साधना में क्रियाशील होने के लिए संयम में प्रवृत्ति और असंयम से निवृत्ति आवश्यक है ( 67 ) । साधक के द्वारा शुभ कर्म से अशुभ कर्म रोका जाना चाहिए तथा आत्मानुभव से शुभ कर्म भी रोका जाना चाहिए । इसी क्रम से साधक आगे बढे (146) | साधना में वास्तविकता प्रान्तरिक शुद्धि से प्रकट होती है । आन्तरिक शुद्धि से बाह्य शुद्धि भी आवश्यक रूप से होती है । प्रान्तरिक अशुद्धि से ही मनुष्य बाह्य दोषों को करता है । ( 144 ) । कामुकता, अहंकार, मायाचार और लोभ से रहित व्यक्ति के भावों में निर्मलता होती है ( 145 ) । साधना के लिए त्यागमय जीवन आवश्यक है । जो संसार, शरीर तथा इन्द्रिय-विषय की नश्वरता का चिन्तन करता है उस व्यक्ति के जीवन में त्याग घटित होता है ( 51 ) । जो प्राप्त किए गए मनोहर और प्रिय भोगों को पीठ करता है तथा स्व. अधीन भोगों को छोड़ता है वही त्यागी है ( 52 ) । इसके लिए इन्द्रियों का संयम किया जाना चाहिए । जैसे हाथी के लिए अंकुश है तथा नगर के लिए खाई है, वैसे ही इन्द्रियों का संयम करने के लिए परिग्रह का त्याग है ( 76 ) । जैसे लगाम के द्वारा घोड़े रोके जाते हैं, उसी प्रकार तपस्या से इन्द्रियविषय और कषाएँ रोकी जाती हैं ( 68 ) ।
अनासक्ति के अभ्यास से साधना में सरलता होती है । साधक सोचे कि वह परमार्थतः सर्वोच्च और शुद्ध आत्मा है । अतः परमाणु मात्र भी वस्तु उसकी नहीं है ( 53 ) । जो ममता वाली वस्तु-बुद्धि
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