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चारित्रहीन व्यक्ति का कोरा विद्वान् होना क्या प्रयोजन सिद्ध करेगा ? जैसे कि वे व्यक्ति के द्वारा जलाए गए भी लाखों-करोड़ों दीपक उसके लिए क्या प्रयोजन सिद्ध करेंगे ( 135 ) ? अतः कहा गया है कि चारित्र ही धर्म है ( 139 ) । इसलिए जब तक किसी को बुढापा नहीं सताता है, जब तक किसी को रोग नहीं बढता है, जब तक किसी कि इन्द्रियां क्षीरण नहीं होती है तब तक उसको धर्म (नैतिकआध्यात्मिक चारित्र) का आचरण कर लेना चाहिए ( 152 ) । चारित्र का प्रभाव जीवन में गहरा होता है । इसलिए जैसे सूई कूड़े में पड़ी हुई भी नहीं खोती है, वैसे ही संसार में स्थित भी नियम युक्त ( चारित्र-युक्त) व्यक्ति बर्बाद नहीं होता है ( 128 ) । जरा-मरण के प्रवाह के द्वारा बहा कर ले जाते हुए मनुष्यों के लिए धर्म ( चारित्र) टापू (आश्रय गृह ) ( है ), सहारा ( है ), रक्षास्थल (है) तथा उत्तम शरण ( है ) ( 163 ) ।
धागे-युक्त
सदाचरण का सार :
मनुष्य समाज में रहता है । विभिन्न मनुष्यों और प्राणियों के बीच ही उसके आचरण की परीक्षा होती है। प्रश्न यह है कि आचरण कैसा किया जाए । समरणसुत्तं का शिक्षरण है कि तुम स्वयं से स्वयं के लिए जो कुछ चाहते हो और तुम स्वयं से स्वयं के लिए जो कुछ नहीं चाहते हो, क्रमशः उसको तुम दूसरों के लिए चाहो और न चाहो ( 15 ) । जैसे तुम्हारे अपने लिए दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार दूसरे सब जीवों के लिए जानकर उचित रूप से सब जीवों से स्नेह करों तथा अपने से तुलना के द्वारा उनके प्रति सहानुभूति रक्खो (79) । हिंसा से बचने के लिए समरणसुत्तं का शिक्षरण है कि तू वह ही है जिसको तू मारे जाने योग्य मानता है । तू वह ही है जिसको तू शासित किए जाने योग्य मानता है ( 81 ) ।
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[ समरणसुत्तं
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