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गहरी और स्पष्ट होती है। यही सम्यक्ज्ञान है । कर्म-रज से मुक्त होने के लिए राग से छुटकारा पाने के लिए, चित्त को संयमित करने के लिए, सद्गुरणों में अनुरक्त होने के लिए तथा जीवों से मैत्री उत्पन्न करने के लिए ज्ञान मनुष्य को प्रेरित करता है (129,130)। ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है, ध्यान से सब कर्मों का नाश होता है, कर्मों के नाश का फल परम शान्ति है, इसलिए ज्ञान का अभ्यास किया जाना चाहिए (158)। समरणसुत्तं के अनुसार जो आत्मा को न बँधी हुई और न कर्मों के द्वारा मलिन की हुई समझता है, जो इसके अनुभव को अद्वितीय समझता है, जो इसको अंतरंगरूप से भेदरहित समझता है, जो इसको क्षेत्ररहित, परिभाषारहित, तथा मध्यरहित समझता है वह जिन-शासन को समझता है (131)1 यह आत्मा रसरहित, रूपरहित, गंधरहित तथा शब्दरहित होता है; चेतना उसका गुण है, वह अदृश्यमान रहता है (105) । वह अनुभव से ही जाना जाता है । अतः समणसुत्तं का शिक्षण है कि व्यक्ति आत्म-ज्ञान में ही संलग्न रहे, इसमें ही सदा सन्तुष्ट हो, इससे ही तृप्त हो (132)। जैसे कोई व्यक्ति परोपकार के द्वारा यशरूपी निधि को प्राप्त करके उसके फल को अनुभव करता है, उसी प्रकार ज्ञानी पर से तृप्ति की आदत को त्यागकर आत्म-ज्ञानरूपी निधि के फल को अनुभव करता है (133)। यहाँ यह समझना चाहिए कि प्रात्मा में रागादि का उत्पन्न न होना अहिंसकता है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है (82)। इस तरह से आत्मा ही अहिंसा है (84)। साधना को भूमिका : .
मनुष्य में सम्यक्ज्ञान के उदय होने पर उसे ज्ञात होता है कि विविधताओं से भरे हुए इस जगत् में प्रत्येक आत्मा (जीव) अपने सुख-दुःख का कर्ता स्वयं ही होता है । वह स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है । न जीता हुआ आत्मा ही स्वयं का शत्रु होता चयनिका ]
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