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सारा लोक ही क्यों न हो, मनुष्य को आकर्षित नहीं कर पाता है (120)। आध्यात्मिक जागृति व्यक्ति को निर्भय बनाती है । विनश्वर शरीर से एकीकरण भय को जन्म देता है । लोक-भय, परलोक-भय अरक्षा-भय, संयमहीन होने का भय, मृत्यु-भय, वेदना-भय, और अकस्मात्-भय शरीर और मन स्तर पर ही होते हैं। आध्यात्मिक जागृति । आत्म-जागृति होने के पश्चात् शरीर और मन के सहारे होने वाले भय विदा हो जाते हैं (123) । आध्यात्मिक जागृति का जीवन में महत्व होने के कारण ही यह कहा गया है कि जागरूकता अध्यात्म की माता है, इसी से अध्यात्म की वृद्धि और रक्षा होती है (156) । इसलिए कहा गया है कि व्यक्ति जागरूकतापूर्वक चले, जागरूकतापूर्वक खड़ा रहे, बैठे और सोए, उसी प्रकार बोले और भोजन करे (157)। समणसुत्तं का आह्वान है कि हे मनुष्यों ! तुम निरन्तर जागो (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग रहो), जागते हुए (आध्यात्मिक) मूल्यों में सजग (व्यक्ति) की प्रतिभा बढ़ती है, जो व्यक्ति सोता है (आध्यात्मिक मूल्यों को भूला हुआ है),वह सुखी नहीं होता है जो सदा जागता है (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग है) वह सुखी होता है (92)। समरणसुत्तं का दृढ़ विश्वास प्रतीत होता है कि सोते हुए (आध्यात्मिक मूल्यों को भूले हुए) व्यक्तियों के लोकातीत परमार्थ
और लोक में सर्वोत्तम प्रयोजन- दोनों ही नष्ट हो जाते हैं (87)। ___उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समता में रूचि ही सम्यग्दर्शन है जो समता में रूचि है वही आध्यात्मिक जागृति है । समता जीवन का सार है, यही जीवन प्रा आदर्श है । जो निषेधात्मक दृष्टि से पूर्ण तनाव-मुक्ति है, वही स्वीकारात्मक दृष्टि से पूर्ण समता की प्राप्ति है। अतः पूर्ण समता की प्राप्ति में रुचि को सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है । इससे शाश्वत आत्मा में श्रद्धा उत्पन्न होती है। यहाँ यह समझना चाहिए कि सार में रुचि होने पर मार-प्रसार की समझ
[ समणसुत्तं
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