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________________ क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अन्तरहित होती हैं (48)। सच तो यह है कि मनुष्यों का मानसिक दुःख इच्छाओं में प्रत्यासक्ति से उत्पन्न होता है (36)। इतना होने पर भी जब जीवन में सार के दर्शन नहीं होते, तो मनुष्य असार में ही डूबता जाता है और उससे इतना एकीकरण कर लेता है कि उसे असार ही सार के सदृश लगने लगता है । ठीक ही कहा है, जन्म; जरा-मरण से उत्पन्न दुःख (यद्यपि) जाना जाता है, विचारा जाता है, फिर भी विषयों से निर्लिप्त नहीं हुआ जाता है। पाश्चर्य ! मनुष्य के द्वारा मूर्छा की गांठ दृढ़ बाँधी हुई है (22)। असार में निमग्नता के कारण व्यक्ति की दृष्टि में विपरीतता उत्पन्न हो जाती है । (30)। इस कारण वह इन्द्रियों को ही परम सत्य मानने लग जाता है और देह-दृष्टि में लीन रहता है (31,102)। इसके फलस्वरूप उसकी असार में रुचि दृढ़ हो जाती है। असार में रुचि रखने वाला व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होता है, उसे बहिरात्मा भी कहते हैं (31,102)। यह उसकी आत्म-विस्मृति की अवस्था है। आत्म-जागृति ही सार का दर्शन है। समता में रुचि ही सार में रुचि है। यह ही सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) है। सार का दर्शन करने वाला व्यक्ति सम्यग्दृष्टि होता है, उसे अन्तरात्मा भी कहते हैं (102,117)। यह व्यक्ति देह और आत्मा में भेद करते हुए आत्मदृष्टि को महत्व देता है (38,102)। अतः समरणसुत्तं का शिक्षण है कि शरीर से ममता को दूर हटाओ (38)। सम्यक्त्व का महत्व.. समझते हुए समरपसुत्तं का कहना है कि सम्यक्त्व से रहित व्यक्ति अत्यन्त कठोर तप करते हुए भी अध्यात्म के लाभ को हजारों-करोड़ों वर्षों में भी प्राप्त नहीं करते हैं (118)। जिसके द्वारा प्राध्यामिक जागृति प्राप्त की गई है, वह ही अद्वितीय है, चूंकि वह ही समता को प्राप्त करता है (119)। सार में रुचि । समता में रुचि । आध्यात्मिक जागृति । प्रात्म-जागृति होने पर प्रसार का महान् संग्रह भी चाहे वह चयनिका ] [ ix Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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