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________________ का अन्त करने वाला नहीं होता है ( 37 ) । जो व्यक्ति आसक्ति से रहित है और आत्मा में एकाग्रचित्त है, वह व्यक्ति स्वभाव से आत्मा को जानता देखता है और वह निश्चय ही प्राध्यात्मिक चारित्र (समता) का आचरण करता है (138) । जिस व्यक्ति के लिए सुखदुःख समान होते हैं, उसमें किसी भी वस्तु के प्रति राग-द्वेष नहीं रहता है । इसके फलस्वरूप उसमें कर्मों का प्रवेश नहीं होता है. (143) सच तो यह है कि ज्ञानी व्यक्ति अकर्म (अनासक्त कर्म) से कर्म-बन्धन को नष्ट कर देते हैं (90) । अतः कहा जा सकता है कि समता की प्राप्ति जीवन का आदर्श है । जीवन में सार-प्रसार की समझ : मनुष्य जीवन में जो कुछ करता है, भोगता है, वह उसे सार समझ कर ही करता - भोगता है । इस संसार में जो कुछ वह प्राप्त करता है, उससे न वह पूरी तरह से तृप्त होता है और न ही सदा के लिए सन्तुष्ट । इस तरह से उसकी आशा के विपरीत प्रसार ही उसके हाथ लगता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह आन्तरिक रूप से व्याकुल ही बना रहता है । अनुभव के परिपक्व होने पर वह यह सोचने को बाध्य हो जाता है कि जैसे केले के पेड़ में कहीं सार नहीं होता है, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में कहीं सुख नहीं होता है ( 19 ) । इन्द्रिय-भोग क्षणभर के लिए सुखमय तथा बहुत समय के लिए दुःखमय होते हैं, अति दुःखमय और अल्प सुखमय होते हैं ( 18 ) । इन्द्रिय-विषयों को भोगना खाज को खुजाने के समान है ( 20 ) । उसमें यह विचार पैदा होता है कि बुढ़ापा, बीमारियाँ और मरण - ये सभी दुःखरूप हैं (26) । इच्छाओं की पूर्ति करते करते वह समझने लगता है कि इच्छा की पूर्ति सुख तो पैदा करती है, पर वह दूसरी इच्छा को जन्म दे जाती है । इस तरह से इच्छा पूर्ति का यह क्रम चलता रहता है, viii ] " Jain Education International For Personal & Private Use Only [ समरणसुतं www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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