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________________ है । थोड़ा विस्तार से कहा जाय तो कषाएँ और इन्द्रिय-विषयासक्ति ही स्वयं की शत्रु होती है। (62)। इस तरह से अशुभ में स्थित आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है और शुभ में स्थित प्रात्मा अपना ही मित्र है (61) । सुख-दुःख के मूल में प्रात्मा (जीव) के द्वारा किए हुए अपने कर्म हैं, जिन्हें वह स्वाधीनतापूर्वक चुनता है, किन्तु उनका फल भोगते समय वह (हुए कर्म-बन्धन के कारण) पराधीन हो • जाता है, जैसे कि जब कोई पेड़ पर चढ़ता है तो स्वाधीन होता है, किन्तु जब वह उससे गिरता है तो पराधीन हो जाता है (28) । जीव के कर्मों का बन्धन भावानुसार होता है (27) । इसलिए कहा गया है कि यदि कोई प्राणियों की हिंसा करे या न भी कर पाये तो भी हिंसा के भाव से ही कर्म का बन्धन हो जाता है। यही कर्म-बन्ध का संक्षेप्त है (83) । अतः समरणसुत्तं का शिक्षण है कि व्यक्ति अंतरंग राग-द्वेष से ही युद्ध करे, जगत् में बाह्य व्यक्तियों से युद्ध करने से क्या लाभ है ? (64) । यह सच है कि आत्मा (मन) को वश में (संयमित) करना अत्यन्त कठिन है, तो भी यह उचित है कि आत्मा (मन) ही वश में (संयमित) किया जाना चाहिए (65) जो व्यक्ति कठिनाई से जीते जाने वाले संग्राम में हजारों के द्वारा हजारों को जीते और जो एक स्व को जीते तो उसकी यह स्व पर जीत परम विजय है (63), इससे जीवन में सुख की वृद्धि होती है । यहाँ यह समझना चाहिए कि जैसे थोड़ा सा ऋण, थोड़ा सा घाव तथा थोड़ी सी अग्नि कष्टदायक होती है, उसी प्रकार थोड़ी सी कषाय (रागद्वष) दुःख दे जाता है । उसे थोड़ा सा समझकर उसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए' (69)। जीवन में विकास, ज्ञान और चारित्र के सम्मिलित प्रयास से ही संभव है । जो चारित्र के बिना ज्ञान का अभ्यास करता है, जो मन की एकाग्रता के बिना तपस्या करता है, वह सब उस व्यक्ति के लिए xii ] [ समरणसुत्तं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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