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________________ 57. नारंमेन पयालुया 91/167 =जीव-हिंसा के साथ दयालुता नहीं, (ठहरती है)। 58. जागरह नरा! णिच्चं 92/168 = हे मनुष्यों ! तुम 'निरंतर जागो (प्राध्यारिक मूल्यों में सजग रहो)। 59. जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धी 92/168 = जागते हुए (व्यक्ति) की प्रतिभा बढ़ती है। 60. जो सुवति ॥ सो धन्नो 92/168 =जो सोता है, वह सुखी होता है। 61. जो जग्गति सो सया पन्नो 92/168 = जो सदा जागता हैं, वह सुखी होता है। 62. प्रविणीअस्स विवत्ती 93/170 = अविनीत के अनर्थ (होता है)। 63. विनीमस्स संपत्ती 93/170 = विनीत के समृद्धि (होती है)। . 64. दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीति 99/176 = दीपक के समान - प्राचार्य (स्वयं) प्रकाशित होते हैं तथा दूसरों को प्रकाशित करते हैं । 65. कियाहीनं नाणं हयं 115/212 = क्रियाहीन ज्ञान निकम्मा (होता है)। 66. अण्णागमो किया हया 115/212 = प्रज्ञान से (की हुई) क्रिया निकम्मी (होती है)। 67. ववहारा जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं 117/220=व्यवहार से जीवादि - (तत्वों) में श्रद्धा सम्यक्त्व (है)। 68. णिच्छयदो अप्पा सम्मत्तं हवइ 117/220 = निश्चय से आत्मा सम्यक्त्व होती है। 69. तेलोक्कलंभाला सम्मइंसणलंभो वरं 120/225 = त्रिलोक के लाभ से सन्दर्शन का लाभ अच्छा है। . 70. सम्मविट्ठी जीवा णिग्भया होंति 123/232 = सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय होते हैं। 68 ] [ समणसुत्तं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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