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________________ 82 जैनन्यायपञ्चाशती ___यह सामान्य दो प्रकार का होता है-पर और अपर। परसामान्य उसे कहते हैं जो अधिक देश में रहता हो। जैसे-वृक्ष इत्यादि। जो न्यून देश में रहे वह अपरसामान्य है। जैसे-आम, नीम, कदम्ब आदि विशेषवृक्षों के बोधक हैं। सामान्य और विशेषये दोनों पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं । वैशेषिकदर्शन में विशेष की परिभाषा इस प्रकार की गई है-'नित्यद्रव्यवृत्तयो विशेषास्तु अनन्ता एव।' तात्पर्य यह है कि जो नित्य द्रव्य परमाणुओं में रहता हुआ परस्पर उनका (परमाणुओं का) व्यावर्तक होता है वही विशेष होता है। जब व्यक्ति पदार्थों की परस्पर भिन्नता को सिद्ध करता हुआ परमाणु तक पहुंच जाता है तब परमाणुओं की निरवयवता होने के कारण यह कहा जाता है कि यह परमाणु उस परमाणु से भिन्न है, क्योंकि यह विशेष परमाणु है। इस पद्धति से विशेष ही परमाणुओं का भेद करने वाला होता है। विशेष ही यही विशेषता है कि जो परमाणुओं को परस्पर विभक्त करती है। जैनदर्शन के अनुसार सामान्य और विशेष स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, किन्तु ये दोनों वस्तु के ही गुण हैं। इसलिए सभी पदार्थों में दोनों की विद्यमानता दिखाई देती है। यहां विशेषरूप से यह ज्ञातव्य है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं ही सामान्यविशेषात्मक होता है। जैसे–'मनुष्य' कहने पर मनुष्यमात्र का बोध हो जाता है। यह सामान्यरूप से वस्तु का बोध है। यह मनुष्य भारतीय है, विदेशी है, यह गौरा है अथवा काला . है'-ऐसा कहने पर मनुष्यविशेष का बोध होता है। इस प्रकार शब्द स्वयं ही सामान्य और विशेष का ज्ञान करा देता है, क्योंकि सामान्यविशेष पदार्थ के धर्म हैं। पदार्थ के इस रूप को जानने के लिए वैशेषिक-दर्शन में सामान्य और विशेष को स्वतन्त्र पदार्थ स्वीकृत किया गया। किन्तु यह न्यायसंगत नहीं है। कारिकाकार ने इस (वैशेषिकों का मत) का निराकरण करते हुए सामान्य और विशेष-इन दोनों को स्वतन्त्र पदार्थ के रूप में स्वीकार नहीं किया। ये दोनों स्वतन्त्र पदार्थ नहीं किन्तु पदार्थ के गुण हैं। शब्द के सुनने मात्र से ही सामान्य और विशेष का बोध हो जाता है, इसलिए ये पदार्थ के ही गुण हैं न कि स्वतन्त्र पदार्थ। आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है कि पदार्थ स्वयं ही अनुवृत्ति-सामान्य और व्यतिवृत्ति-विशेष से युक्त होते हैं। उनको बताने के लिए अन्य पदार्थों की आवश्यकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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