________________
77
जैनन्यायपञ्चाशती
इस सिद्धान्त को उदाहरण के द्वारा दृढ कर रहे हैं-धव नामक वृक्षविशेष है। वह वनस्पति है। वनस्पति तो किंशुक-पलाश भी है, किन्तु वनस्पति होने मात्र से धव और किंशुक-दोनों समान नहीं है, क्योंकि दोनों का गुण, धर्म और उपयोगिता पृथक्-पृथक् है, इसलिए दोनों की पृथकता है। धव किंशुक नहीं हो सकता और किंशुक धव नहीं हो सकता। दोनों वनस्पति होते हुए भी गुणधर्म के भेद से दोनों भिन्न हैं। इसका निष्कर्ष है कि अस्तित्वमात्र से सभी द्रव्य समान हो सकते हैं, परन्तु वे जीव नहीं कहे जा सकते।
प्रसंगवश इन द्रव्यों की भिन्नता-अभिन्नता का प्रतिपादन कर रहे हैं। वह इस प्रकार है-अस्तित्व की दृष्टि से जीव का या अन्य किसी द्रव्य का अभिन्नत्व हो सकता है, किन्तु प्रत्येक का लक्षण भिन्न-भिन्न होने के कारण प्रत्येक द्रव्य भिन्न ही है। जैसे-जीव का लक्षण है चैतन्य और धर्मास्तिकाय का लक्षण है गति में सहायता। इसका तात्पर्य यह हुआ कि लक्षणभेद से भिन्न द्रव्यों के साथ अस्तित्व की समानता को देखकर जीव धर्मास्तिकाय नहीं हो जाता और धर्मास्तिकाय जीव नहीं होता। इसलिए द्रव्यों का परस्परंभिन्नत्व-अभिन्नत्व सिद्ध ही है।
. (३६) सम्प्रति कार्यकारणयोर्भिन्नाऽभिन्नत्वं पुष्टं करोति. अब कार्य-कारण की भिन्नता-अभिन्नता को पुष्ट कर रहे हैं
घटो न पृथ्वीविश्लिष्टस्ततोऽभिन्नस्तया भवेत्।
नासीत् पूर्वं घट इति भिन्नस्तेन तया भवेत्॥ ३५॥ घट पृथ्वी (मृत्तिका) से पृथक् नहीं है, इसलिए वह पृथ्वी से अभिन्न है। पहले घड़ा नहीं था, अब बन गया, इसलिए वह पृथ्वी से भिन्न भी है। न्यायप्रकाशिका
किमपि कार्य कारणमन्तरा न भवति। प्रस्तुतस्थले कार्यमस्ति घटः कारणञ्चास्ति मृत्तिका। कारणञ्च द्विविधं भवति-उपादानकारणं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org