________________
75
जैनन्यायपञ्चाशती हैं और एक ही अधिष्ठान-आधार में रहने के कारण से निरपेक्षसत्य हैं । लक्षण-भेद से इन तीनों-उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की भिन्नता है। लक्षण किसी भी वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादक होता है। जैसे-पृथ्वी का लक्षण गन्धवत्व है। यह गन्धवत्व लक्षण पृथ्वी को दूसरे पदार्थों से भिन्न सिद्ध करता है। पृथ्वी गन्धवती होने के कारण इतर पदार्थों से भिन्न हैं, इस कथन से यहां गन्धवत्व हेतु से पृथ्वी दूसरे पदार्थों से भिन्न सिद्ध होती है। इसी प्रकार उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य-इन प्रत्येक का लक्षण भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। उत्पाद का तात्पर्य है-अविद्यमान पदार्थ की समुत्पत्ति । इसका यह लक्षण व्यय के लक्षण से भिन्न है। व्यय का अर्थ हैविद्यमान का विनाश या रूपान्तरण। इसका यह लक्षण उत्पाद के लक्षण से भिन्न है। ध्रौव्य का अर्थ है-शाश्वतरूप में विद्यमानता। इसका यह लक्षण उत्पाद और व्यय के लक्षण से भिन्न है। उत्पाद और व्यय-ये द्रव्य की पर्याएं हैं और ध्रौव्य विशुद्ध सत्तात्मकरूप है। इस प्रकार इन तीनों का लक्षण भिन्न-भिन्न होने के कारण इनका भिन्नत्व सिद्ध होता है।
इनकी अभिन्नता भी देखी जाती है। वह इस प्रकार है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-ये तीनों एक अधिकरण में एक साथ रहते हैं, इसलिए समानाधिकरणवृत्ति होने के कारण ये अभिन्न हैं। इस विवेचन से इन तीनों की भिन्नता और अभिन्नता सिद्ध होती है।
(३५) अस्तित्वमात्रेण किमपि द्रव्यं जीवो भवितुं न शक्नोतीति निरूपयतिअस्तित्वमात्र से कोई भी द्रव्य जीव नहीं हो सकता, ऐसा निरूपण करते हैं- स्यात् जीवोऽप्यस्तिभावो हि,स तु जीवः परोऽपिच।
धवो वनस्पतिः स्यात् स पुनर्धवोऽपि किंशुकः॥३५॥ जीव अस्तिभाव है उसका अस्तित्व है। अस्तिभाव अथवा अस्तित्व जीव का भी है और अन्य द्रव्यों का भी है। धव वनस्पति है, किन्तु वनस्पति धव भी है और किंशुक भी है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org