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जैनन्यायपञ्चाशती
73 अनेनैव प्रकारेण व्ययेऽपि-विनाशेऽपि स्थितिरपेक्षिता भवति। यदि पदार्थस्य स्थितिर्न स्यात् तदा कस्य व्ययः स्यात्? तस्मात् पदार्थस्य व्ययेऽपिविनाशेऽपि स्थितिरावश्यकीति वेदितव्यम्। यदा वस्तुनः सत्तैव न तदा कस्य व्ययो भवितुं शक्यः।यस्य वस्तुनः स्थितिस्तिष्ठति तस्यैव वस्तुनो व्ययो विनाशो वा भवतीति सारः। उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं वस्तुनो लक्षणं जायते। एतेन विवेचनेनेदं सिद्ध्यति यत् वस्तुनो यल्लक्षणं प्रतिपादितंतत्रयात्मकमेकस्मिन्नेव वस्तुनि सहैव तिष्ठति। त्रयाणामेषामधिकरणम् एकम् एवेति समानाधिकरणवृत्तित्वेन एषामभिन्नत्वमेव।
कोई भी ध्रौव्य ऐसा नहीं होता जो उत्पाद और व्यय से रहित हो। वह ध्रौव्य उत्पाद और व्यय के साथ ही होता है। यदि किसी वस्तु की स्थिति देखी जाती है तो वहां यह मानना चाहिए कि इस वस्तु का उत्पाद हो गया है। अन्यथा उसकी स्थिति कैसे हो? इसलिए उत्पाद के साथ ही स्थिति होती है, यह तथ्य सुस्पष्ट है। इस कारण से स्थिति के लिए उत्पाद का होना आवश्यक ही है। उत्पादरहित केवल स्थिति असंभव है।
इसी प्रकार व्यय-विनाश में भी स्थिति अपेक्षित होती है। यदि पदार्थ की स्थिति न हो तो व्यय किसका होगा? इसलिए पदार्थ के व्यय-विनाश में भी स्थिति आवश्यक होती है, ऐसा जानना चाहिए। जब वस्तु की सत्ता ही नहीं है तब व्यय किसका होगा? जिस वस्तु की स्थिति होती है उसी वस्तु का व्यय-विनाश होता है, यह इसका सार है। वस्तु का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होता है। इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि वस्तु के जिस लक्षण का प्रतिपादन किया गया है वह त्रयात्मक-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण एक ही वस्तु में एक साथ रहता है।
इन तीनों का अधिकरण एक ही है, इसलिए एक ही अधिकरण में रहने के कारण इनका (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) अभिन्नत्व ही है।
. (३४) प्रस्तुतकारिकायामुत्पादव्ययधौव्याणां भिन्नताऽभिन्नता च कथमिति प्रतिपादयति
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