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जैनन्यायपञ्चाशती है उत्पत्ति के बाद यदि वस्तु की स्थिति न हो तो विनष्ट होने वाले भाव से क्या प्रयोजन? इसलिए स्थिति और व्यय के साथ ही किसी भी वस्तु का उत्पाद होता है, इसे स्वीकार करना चाहिए।
जिस प्रकार वस्तु का उत्पाद, व्यय और स्थिति के साथ होता है उसी प्रकार उसका व्यय भी स्थिति और उत्पत्ति के साथ ही होता है। यदि किसी भी वस्तु का उत्पाद न हो और उत्पत्ति के बाद उसकी स्थिति न हों तो प्रतियोगी-विनष्ट होने वाली वस्तु के अभाव में व्यय किसका होगा? जिस प्रकार दूध के दधिरूप में परिणमन के लिए दूध की पूर्वकालिक सत्ता अपेक्षित होती है उसी प्रकार किसी भी वस्तु के व्यय अथवा परिणमन के लिए उस वस्तु की पूर्वकालिक सत्ता अपेक्षित होती ही है। यही तथ्य इस कारिका में व्यक्त किया गया है।
(३३) कस्यापि वस्तुनः स्थितिविनाशोत्पादरहिता नैवेति प्रतिपादयति
किसी भी वस्तु की स्थिति विनाश और उत्पाद से रहित नहीं होती, ऐसा प्रतिपादन कर रहे हैं
विनाशोत्पादशून्यत्वात् स्थितिश्चापि न केवला।
उत्पादव्ययध्रौव्याणि तेनाभिन्नानि सन्ति वै॥३३॥ कोई भी ध्रौव्य ऐसा नहीं होता जो उत्पाद और व्यय से रहित हो, उनसे संयुक्त न हो। इस दृष्टि से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों अभिन्न हैं। न्यायप्रकाशिका
किमपि धौव्यमेतादृशं न भवति यत् उत्पादव्ययाभ्यां रहितं स्यात्। तद् धौव्यं उत्पादव्ययाभ्यां सहैव भवति। यदि कस्यापि वस्तुनः स्थितिरवलोक्यते तदा तत्र मन्तव्यमिदं यत् अस्य वस्तुनः समुत्पादो जात एव। अन्यथा तस्य स्थितिः कथं स्यात्? अतः समुत्पादसहितैव स्थितिरिति तथ्यं सुस्पष्टम्।अस्मात् कारणात् स्थित्यर्थं समुत्पाद आवश्यक एव। उत्पादरहिता केवला स्थितिस्तु असंभवास्ति।
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