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जैनन्यायपञ्चाशती उत्पाद, व्यय और ध्रुवत्व-यह वस्तु का लक्षण है। जिस वस्तु में ये तीनों लक्षण न हो उस वस्तु का वस्तुत्व ही नहीं रह सकता। इसी तथ्य को मिट्टी के दृष्टान्त से प्रस्तुत कर रहे हैं।
मिट्टी के पिण्ड से कुछ अंश ग्रहण कर घड़ा बनाया जाता है। घड़े के रूप में यह उत्पाद ही वस्तु का एक रूप है। मृत्पिण्ड के जितने अंश से घट बना उतने मृत्पिण्ड के अंश का विनाश हुआ। यह नाश ही व्यय कहा जाता है। इस उत्पाद और व्यय के रहने पर भी दोनों स्थितियों में पार्थिवत्व-मृत्तिकात्व रहता ही है। इस प्रकार इसमें घटरूप में उत्पाद, मृत्पिण्डरूप में नाश तथा पार्थिवत्व रूप में ध्रुवत्व रहता है। इस प्रकार इससे मिट्टी की त्रिरूपता सिद्ध होती है।
. अब कारिकाकार घट की युक्ति से सभी पदार्थों का त्रिरूपत्व सिद्ध कर रहे हैं। जगत् के सारे पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। उनमें प्रतिक्षण उत्पाद
और विनाश होता रहता है। इतना होने पर भी वे अपने मूलस्वरूप को कभी भी नहीं छोड़ते, अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में व्यवस्थित रहते हैं। यहां यह विचार किया जाता है कि वे अपने स्वरूप में कैसे व्यवस्थित रहते हैं? ऐसी शंका में यह जानना चाहिए कि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं-द्रव्यांश
और पर्यायांश । इनमें उत्पाद और विनाश, ये दोनों पर्यायांश में ही होते हैं। द्रव्यांश में तो मृत्पिण्डता सदा अपने स्वरूप में स्थिर रहती है। इस प्रकार वस्तु के पर्यायों का ही परिवर्तन होता है, किन्तु अवस्थाभेद होने पर भी द्रव्यांश का कभी भी परिवर्तन नहीं होता। इसलिए कारिका में जो कहा गया है 'नोज्झन्ति ते तत् क्वचित्'-यह कथन उपयुक्त ही है।
जैनदर्शन के अभिमतानुसार जैसे वस्तु का स्वरूप त्रयात्मक है उसी प्रकार मीमांसा दर्शन में वही स्वरूप मान्य है। वहां पर वर्धमानक दृष्टान्त के द्वारा उस स्वरूप को सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार पातञ्जल महाभाष्य में भी यही तथ्य प्रतिपादित है। वहां भी वस्तु का नित्यानित्यत्व स्वीकृत है। वहां कहा गया है-'आकृति बदलती रहती है', किन्तु द्रव्य तो अपने स्वरूप में ही रहता है।
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