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________________ जैनन्यायपञ्चाशती आई हुई हवा शीत स्पर्श अथवा उष्ण स्पर्श का अनुभव करा रही है। इस प्रकार का व्यवहार होने पर भी यदि बौद्ध घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की प्राप्यकारिता को स्वीकार करते हैं तो श्रोत्रेन्द्रिय की प्राप्यकारिता को स्वीकार करने में उनको शिरोवेदना क्यों होती है? अतः श्रोत्रेन्द्रिय प्राप्यकारी है, यह निश्चित ही है। (२०-२३) . जैनदर्शने प्रत्यक्षं परोक्षञ्चेति प्रमाणद्वयमभिमतम्। तत्र प्रत्यक्षप्रमाणं प्रस्तुत्य सम्प्रति परोक्षप्रमाणं प्रस्तोतुं तद्भेदान् श्लोकचतुष्टयेन निरूपयति जैनदर्शन में प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो प्रमाण अभिमत हैं। इनमें प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रस्तुत कर अब परोक्ष प्रमाण को प्रस्तुत करने के लिए उसके भेदों का चार श्लोकों के द्वारा निरूपण कर रहे हैं स्मरणं प्रत्यभिज्ञानं तर्कोऽनुमा तथागमः। पूर्वकारणसापेक्षं परोक्षं पञ्चधा स्मृतम्॥२०॥ प्राक्तनानुभवापेक्षं स्मरणं तदिदं पुनः। अपेक्षते प्रत्यभिज्ञा तर्कः प्रोक्तस्त्रयीमपि॥२१॥ अनुमानञ्चहेत्वादि दर्शनापेक्षमागमः। शब्दश्रवणसंकेत ग्रहणादित्यपेक्षितम्॥ २२॥ मतिज्ञानस्य भेदाः स्युः चत्वारोऽमी श्रुतस्य तु। आगमो भेद एको हि सप्तभङ्गीनयान्वितः॥२३॥ ॥चतुर्भिः कलापकम्॥ परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम। इनमें पूर्व कारण की अपेक्षा रहती है। . स्मृति पूर्व अनुभवसापेक्ष है। यह वही है' यह ज्ञान (प्रत्यभिज्ञा) स्मृतिसापेक्ष है। तर्क पूर्वानुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञासापेक्ष होता है। अनुमान हेतु आदि दर्शन की अपेक्षा होती है। आगम में शब्दश्रवण तथा संकेतग्रहण आदि अपेक्षित हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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