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जैनन्यायपञ्चाशती
37 श्रोत्रेन्द्रियस्य। कारणञ्चास्येदमस्ति यदस्य इन्द्रियस्य विषये कथ्यते यत् अमुकदिशः अमुकदेशाद् वा अयं शब्द आयाति इति। एतेन स्पष्टं भवति यत् यदि शब्दः श्रोत्रेण प्राप्तः स्यात् तदा नेदं कथनं युक्तं स्यात् यत् शब्दोऽयं समागतोऽमुकदिशो देशाद् वा। एतेन इदमेव तथ्यं स्पष्टं भवति यत् श्रोत्रं शब्दं प्राप्य तं न प्रकाशयति, किन्तु अप्राप्तमेव तं प्रकाशयति। तस्मात् श्रोत्रेन्द्रियमप्राप्यकारि इत्येव सिद्धयति।
प्रश्नस्यास्योत्तरं ददता कारिकाकारेण समाधीयते यत् दिग्देशव्यपदेशान्न श्रोत्रमप्राप्यकारि, यतो हि दिशो देशस्य च व्यपदेशस्तु घ्राणेन्द्रियविषयेऽपि भवति यत् अस्या दिशः अस्मात् देशात् वा अयं सुगन्धो दुर्गन्धो वा आयातीति। एवं स्पर्शनेन्द्रियविषयेऽपि दिग्देशव्यपदेशो भवति-यथा अस्या दिशः अस्मात् देशात्वा समागतः पवनःशीतस्पर्शमनु-भावयति उष्णस्पर्शञ्च।एतादृशे व्यवहारे सत्यपि यदि बौद्धैः घ्राणेन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियस्य च प्राप्यकारित्वं स्वीक्रियते तदा श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारित्वस्वीकारे कथं भवति शिरोवेदना? तस्मात् श्रोत्रेन्द्रियं प्राप्यकारि इति निश्चितमेव। .
श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में बौद्धदर्शन का यह अभिमत है कि वह प्राप्यकारी इन्द्रिय नहीं है। प्राप्यकारी इन्द्रिय वही होती है जो विषय को प्राप्त करके उसका प्रकाशन करे। श्रोत्रेन्द्रिय की यह स्थिति नहीं है। इसका कारण यह है कि इस इन्द्रिय के विषय में कहा जाता है कि अमुक दिशा से अथवा अमुक देश से यह शब्द आ रहा है। इससे स्पष्ट है कि यदि शब्द श्रोत्र से गृहीत होता तो यह कथन युक्त नहीं होता कि यह शब्द अमुक दिशा अथवा अमुक देश से आया है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि श्रोत्र शब्द को प्राप्त करके उसका प्रकाशन नहीं करता, किन्तु अप्राप्त शब्द को ही प्रकाशित करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्यकारी है।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कारिकाकार इसका समाधान करते हैं कि दिशा और देश का व्यवहार करने से श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्यकारी नहीं हो सकती, क्योंकि दिशा और देश का व्यवहार तो घ्राणेन्द्रिय के विषय में भी होता है, जैसे कि इस दिशा से अथवा इस देश से यह सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध आ रही है। इसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में भी दिशा-देश का व्यवहार होता है। जैसे कि इस दिशा अथवा इस देश से
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