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________________ जैनन्यायपञ्चाशती और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता, इसलिए ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। चक्षुरिन्द्रिय दूर से रूप का ग्रहण करती है और मन दूर से विषय को ग्रहण करता है । यह प्रत्यक्ष है, इसलिए ये (व्यञ्जनाव- ग्रह का अभाव तथा संयोग के बिना विषय का ज्ञान ) इनके प्राप्यकारित्व में प्रत्यक्ष बाधा है। न्यायप्रकाशिका इन्द्रियाणि प्राप्यकारीणि अप्राप्यकारीणि च भवन्ति । तेषु कानिचित् इन्द्रियाणि प्राप्यकारीणि कानिचिच्च अप्राप्याकारीणि । पञ्चसु इन्द्रियेषु मनसश्च मध्ये श्रोत्रेन्द्रियम् घ्राणेन्द्रियम् रसनेन्द्रियम् स्पर्शनेन्द्रियमिति इमानि चत्वारि इन्द्रियाणि प्राप्यकारीणि । मनश्चक्षुषी च अप्राप्यकारिणी । कथम् एषां प्राप्यकारित्वं कथं चाऽप्राप्यकारित्वमिति जिज्ञासायां समाधीयते यत् यदिन्द्रियं पदार्थेन सह संयुज्य एवं तं प्रकाशयति तत् प्राप्यकारि इन्द्रियम् । यच्च पदार्थेन सह सम्पर्कं विनैव तं प्रकाशयति तत् अप्राप्यकारि इन्द्रियम् । चत्वारि इन्द्रियाणि पदार्थैः सह संयुज्य एव पदार्थान् प्रकाशयन्ति । अतः तान्येव प्राप्यकारीणि । नैषा स्थितिः चक्षुर्मनसोः । एते तु दूरत एव पदार्थैः सह संयोगं विना पदार्थान् प्रकाशयतः । चतुर्णामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रहश्च इत्युभयं भवति । किन्तु चक्षुषो मनसश्च केवलं अर्थावग्रह एव भवति न तु व्यञ्जनावग्रहः । चक्षुर्मनसोः व्यञ्जनावग्रहस्य बाधकं प्रत्यक्षमेव वर्तते । लोकप्रसिद्धमिदं यत् चक्षुर्मनसोः पदार्थैः सह न भवति संयोगः तथापि संयोगमन्तरैव भवति तत्र पदार्थबोध: । अतः अर्थावग्रह एव केवलमनयोः । इन्द्रियां प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी दोनों होती हैं। उनमें कुछ इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं और कुछ अप्राप्यकारी। पांच इन्द्रियों और मन के बीच श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय- ये चार प्राप्यकारी इन्द्रियां हैं, चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं। ये प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी क्यों हैं? इस जिज्ञासा में इसका समाधान यह हैं कि जो इन्द्रिय पदार्थ के साथ संयुक्त होकर ही उसका प्रकाशन करती है वह प्राप्यकारी इन्द्रिय है। जो इन्द्रिय पदार्थ के साथ सम्पर्क के बिना ही पदार्थ का प्रकाशन करती है वह अप्राप्यकारी इन्द्रिय है । चार इन्द्रियां पदार्थों के साथ संयोग करके ही पदार्थों को प्रकाशित करती हैं, इसलिए वे ही प्राप्यकारी इन्द्रियां हैं। चक्षु Jain Education International 25 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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