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जैनन्यायपञ्चाशती • अवाय-ईहा के द्वारा प्रस्तुत विकल्प में 'अवाय' निर्णय करता है कि 'यह गौ है, गवय नहीं है'। ईहा में प्रस्तुत विशेषधर्मों में नाम और जाति का पर्यालोचन कर निर्णय किया जाता है कि यह गौ ही है। धारणा-तत्पश्चात् अवाय में निर्णीत अर्थ धारणा में पुष्ट हो जाता है। वह कुछ समय तक वहां स्थिर रहता है। फिर विषयान्तर होने पर वह अपना संस्कार वहां छोड़कर चला जाता है। यही अवग्रहादि का
अनुक्रम है।
यह चतुर्विध मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकार का होता है। वह इस प्रकार है-पांच ज्ञानेन्द्रियां और एक मन। इनको मिलाने से इन्द्रियां छः हो जाती हैं। दूसरी ओर अवग्रह के दो भेद-व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह तथा ईहा, अवाय, और धारणाये सभी मिलकर ज्ञान के पांच प्रकार होते हैं। पांच इन्द्रियों और मन के साथ अवग्रह आदि पांच ज्ञान का गुणन करने से (६४५) ३० भेद होते हैं। छ: इन्द्रियों में चक्षु और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता, इसलिए ज्ञान के तीस भेदों में दो भेद कम हो जाने के कारण मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकार का होता है। ___अब यहां यह जिज्ञासा होती है कि मन और चक्षु का व्यञ्जनावग्रह क्यों नहीं होता? इसका समाधान यह जानना चाहिए-इन्द्रियों का पदार्थों के साथ संयोगमात्र होना ही व्यञ्जनावग्रह है। यह पदार्थ घट है', 'यह पदार्थ पट है'- इस प्रकार विशेष ग्राहक बद्वि से जो विशेष ज्ञान होता है वह अर्थावग्रह होता है। चक्षु
और मन पदार्थों के साथ संयोग किए बिना ही दूर से पदार्थों का ग्रहण कर लेते हैं, इसलिए इनका अर्थावग्रह ही होता है, व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। व्यञ्जनावग्रह के अभाव के कारण ही चक्षु और मन-दोनों को अप्राप्यकारी कहा जाता है।
(१२). साम्प्रतम् इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वमप्राप्यकारित्वं च विवेचयतिअब इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व का विवेचन कर रहे हैं
चतुर्णां प्राप्यकारित्वं व्यत्ययो मनसो दृशः। व्यञ्जनावग्रहाभावात् प्रत्यक्षं बाधनात्तथा॥१२॥ श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय तथा स्पर्शनेन्द्रिय-इन चारों का व्यञ्जनावग्रह होता है, इसलिए ये प्राप्यकारी (प्राप्त अर्थ को प्रकाशित करने वाली) हैं। चक्षुरिन्द्रिय
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