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________________ 23 जैनन्यायपञ्चाशती इदानीमियं जिज्ञासा भवति यत् मनःचक्षुषोः व्यञ्जनावग्रहः कथं न भवतीति समाधानमिदं विज्ञेयम्-इन्द्रियाणां पदार्थैः सह संयोगमात्रमेव व्यञ्जनावग्रहः। ततः 'अयं घटः', 'अयं पटः' इति विशेषग्राहकबुद्ध्या गृहीते पदार्थे भवति अर्थावग्रहः। चक्षुः मनश्च पदार्थेन सह सम्बन्धं विनैव दूरात् गृहीतः पदार्थान्। अत एव अनयोरर्थावग्रह एव भवति न तु व्यञ्जनावग्रहः। व्यञ्जनावग्रहाभावादेव चक्षुर्मनश्चेत्युभयमप्राप्यकारि इत्युच्यते। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को ही मतिज्ञान कहा जाता है, यह एक तथ्य है। इस ज्ञान में इन्द्रियों और मन का उपयोग होता है, इसलिए कहा गया है कि 'इन्द्रियमनोनिमित्तं मतिः'-अर्थात् मतिज्ञान इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है। इस ज्ञान में आत्मा और वस्तु के मध्य इन्द्रियां माध्यम बनती हैं, इसलिए यह ज्ञान व्यवधान-सहित होता है। इस प्रकार इस ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा जा सकता है, फिर भी लोक में इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने की लौकिक परम्परा को देखकर मतिज्ञान की गणना प्रत्यक्ष में की जाती है। नैयायिक भी इसी बात की पुष्टि इस उक्ति के द्वारा करते हैं-'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्'इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है। इस मतिज्ञान के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। उनका तात्पर्य इस प्रकार है • अवग्रह-अवग्रह का अर्थ है प्रथम ज्ञान। इन्द्रियों का विषय से सम्बन्ध होने पर 'यह कुछ है' सत्तामात्र बोधक प्रथम ज्ञान होता है। इसमें किसी विशेषण-विशेष्य का ज्ञान नहीं होता। प्रमाता यहां पर यह निश्चित नहीं कर पाता कि यह क्या है? यहां किसी विशेष धर्म का ज्ञान नहीं होता। न्यायदर्शन में इसे निर्विकल्पक ज्ञान कहा जाता है। • ईहा-अवग्रह के पश्चात् ईहा ज्ञान होता है। इसमें वितर्क होता है और वह संशयात्मक होता है। यह गौ है या गवय'- इस रूप में यह संशय होता है। संशय केवल विकल्प को प्रस्तुत करता है, निर्णय नहीं करता। संशयात्मक ईहाज्ञान निर्णायक न होने के कारण प्रमाण नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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