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जैनन्यायपञ्चाशती और मन की ऐसी स्थिति नहीं हैं। ये दोनों तो दूर से ही पदार्थों के साथ संयोग किए बिना पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। . चार इन्द्रियों का व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह-दोनों होता है, किन्तु चक्षु और मन का केवल अर्थावग्रह ही होता है, व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। चक्षु और मन के व्यञ्जनावग्रह का बाधक प्रत्यक्ष ही है। यह बात लोक प्रसिद्ध है कि चक्षु और मन का पदार्थों के साथ संयोग नहीं होता, फिर भी वे बिना संयोग के पदार्थो का बोध कराते हैं, इसलिए इनका अर्थावग्रह ही होता है।
(१३) चक्षुषो मनसश्च प्राप्यकारित्वं नास्तीत्येव द्रढयतिचक्षु और मन का प्राप्यकारित्व नहीं है, इसी बात को दृढ कर रहे हैं
व्यवधिमत्परिच्छेदि रश्मिराशिविवर्जितम्। . मनो न भवितुं शक्यं प्राप्यकारि तथेक्षणम्॥१३॥ . चक्षु और मन-ये प्राप्यकारी नहीं हो सकते। इसका हेतु है व्यवहित पदार्थ का ज्ञान । मन दूरवर्ती पदार्थ का ज्ञान करता है। उसी प्रकार चक्षु भी दूरवर्ती पदार्थ का ज्ञान करता है। चक्षु की रश्मियां पदार्थ तक पहुंच कर ज्ञान कराती हैं अथवा पदार्थ की रश्मियां चक्षु तक पहुंचती हैं, तब ज्ञान होता है। ये दोनों विकल्प प्रमाणसिद्ध नहीं है। न्यायप्रकाशिका
चक्षुर्मनश्चेत्येतद्वयं प्राप्यकारि नास्ति। विषयं प्राप्यैव नैतद् प्रकाशयति, किन्तु व्यवहितान् पदार्थान् प्रकाशयति। एतेन स्पष्टं भवति यत् मनः चक्षुश्च यदा पदार्थैरसंस्पृष्टमेव बोधयति पदार्थान् तदा अनयोः प्राप्य कारित्वं कथं भवितुमर्हति? ___ वेदान्तदर्शनानुसारं मनःचक्षुषी प्राप्यकारिणी स्तः। तस्य चेयं प्रक्रियाऽस्ति-तैजसात् चक्षुषः घटं (विषयं) यावत् एका प्रणालिका भवति। तद्वारा अन्तःकरणं घटं यावत् गच्छति।गत्वा च विषयाकारतामुपैति। तस्मिन् विषयाकाराकारिते अन्तःकरणे चेतनस्य प्रकाशः पतति।तत एव घटस्य ज्ञानं भवति। तदुक्तम्
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