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जैनन्यायपञ्चाशती बौद्धास्तु ज्ञानस्य अप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्यञ्च परत इति वदन्ति। जैनदर्शने तु प्रामाण्यं स्वतः परतश्च। अभ्यासदशायां स्वतः तद्भिन्नस्थले च परत इति भावः।
अनभ्याशदशायां ज्ञानस्य प्रामाण्यं कथं परतः इति जिज्ञासायामेतदवगन्तव्यम् यत् तत्र यदर्थविषयकं ज्ञानं भवति तस्य अव्यभिचरितत्वं यावन्न निश्चितं भवति तावत् तस्य प्रामाण्यं कथं स्यात्? तच्चाव्यभिचरितत्वं तदा एव ज्ञायते यदा पूर्वज्ञानगृहीतविषयग्राहकं संवादिज्ञानान्तरं भवेत्। एवञ्च संवादकज्ञानान्तराद् पूर्वज्ञानस्य प्रामाण्यम्। अथवा अनभ्यासदशापन्ने प्रत्यक्षे गृहीतो विषयो यदि अर्थक्रियाकारी भवति तदा तस्य प्रामाण्यं वक्तुं शक्यं भवति। अथवा अनभ्यासदशापन्नेन ज्ञानेन गृहीतो विषयोऽर्थो वा यदि तेन ज्ञानेन सह नान्तरीयकतां भजेच्चेत् तद्वारा ज्ञानस्य प्रामाण्यं वक्तुं शक्यं स्यात्। एतदेव ग्रन्थकाराभिमतम्।
दीप की प्राप्ति अथवा उसे जानने में अन्य दीप की गवेषणा नहीं की जाती, किन्तु दीप स्वयं ही अपने को प्रकाशित करता है, वह लोगों की दृष्टि का विषय बनता है। दीप प्रकाश-स्वरूप है। वह अपने को प्रकाशित करता हुआ पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जो स्वयं प्रकाशमान नहीं होता वह दूसरों को कैसे प्रकाशित करेगा? इस प्रकार जो स्वयं प्रकाशक होता हुआ पर का प्रकाशक होता है, वही स्वप्रकाशक कहा जाता है। स्वप्रकाश का यह लक्षण जैसे दीप में घटित होता है वैसे ही ज्ञान में भी घटित होता है। ज्ञान का अर्थ है-ज्ञप्ति। वह (ज्ञान) भाव में अनट् प्रत्यय लगने से निष्पन्न है। ज्ञान का दूसरा पर्याय है-प्रकाश। ज्ञान, बोध और प्रकाश-ये तीनों शब्द पर्यायवाचक हैं। वह ज्ञान चेतन है। चेतन
और प्रकाशक होने के कारण ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के लिए ज्ञानान्तर की किसी भी प्रकार अपेक्षा नहीं रखता। अपेक्षा भी क्यों हों? जो स्वयं प्रकाशात्मक है १. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।
नैयायिकास्ते परतः सौगताश्चरमं स्वतः॥ प्रथमं परतः प्राहुः प्रामाण्यं वेदवादिनः। प्रमाणत्वं स्वतः प्राहुः परतश्चाप्रमाणताम्॥
सर्वदर्शनसंग्रहः पृ. २७९ ।
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