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________________ जैनन्यायपञ्चाशती 11 अर्थात् स्वयं प्रकाशमान है और दूसरों को प्रकाशित करने में समर्थ है वह अपने प्रकाश के लिए परमुखापेक्षी क्यों होगा? दीप का प्रकाश सीमितकालिक है और ज्ञान का प्रकाश सार्वकालिक है। इस स्थिति में सीमितकालिक प्रकाशक दीप स्वयं को प्रकाशित करता हुआ यदि स्वयं के प्रकाश के लिए किसी दूसरे दीप की अपेक्षा नहीं रखता तो सार्वकालिक प्रकाशक ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के लिए किसी साधन की अपेक्षा क्यों करेगा? अतः आचार्य कहते हैं - ' तथैव तस्य विज्ञाने, सापेक्षं न चिदन्तरम्' - जैसे दीप को प्रकाश के लिए अन्य दीप की अपेक्षा नहीं होती वैसे ही ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । ज्ञान दो प्रकार का होता है - यथार्थ और अयथार्थ । यथार्थ ज्ञान ही प्रमाण है। उसके प्रामाण्य के विषय में दार्शनिकों का मतभेद है। इस संबंध में न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य हो अथवा अप्रामाण्य हो - ये दोनों परत: होते हैं । इस ( न्यायदर्शन ) दर्शन में ज्ञान को व्यवसाय भी कहा जाता है। ज्ञान का ग्रहण अनुव्यवसाय से होता है, किन्तु उसका प्रामाण्य तो सफल प्रवृत्ति के जनक अनुमान से ही होता है, स्वतः नहीं होता । यदि ज्ञान स्वतः प्रमाण होता तो मेरा ज्ञान युक्त है अथवा अयुक्त है, यह संशय नहीं होता । किन्तु यह संशय होता है, इसलिए यह मानना आवश्यक है कि ज्ञान स्वत: प्रमाण नहीं है। इसके विपरीत मीमांसक कहते हैं कि ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः ही होता है और अप्रामाण्यं परत: होता है। ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य क्या है, इस जिज्ञासा में उनका यह अभिमत है कि ज्ञान की उत्पादक और ग्राहक सामग्री यदि एक है तो वही ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य है। इस विषय में तीनों मीमांसकों (प्रभाकर, कुमारिलभट्ट, मुरारिमिश्र) का एक मत है। प्रभाकर के मत में ज्ञान स्वप्रकाश होता है, वह प्रकाशमान ही उत्पन्न होता है। कुमारिलभट्ट के मत में ज्ञान से ज्ञातता उत्पन्न होती है और उसी (ज्ञातता) से उसका प्रामाण्य भी ज्ञात होता है। मुरारिमिश्र के अनुसार ज्ञान से अनुव्यवसाय उत्पन्न होता है और उसी से ज्ञान और उसका प्रामाण्य- दोनों का ग्रहण होता है, इसलिए कहा गया - सभी प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः ही होता है। यदि प्रमाण में वह शक्ति नहीं है तो वह दूसरों के द्वारा कैसे संपादित की जा सकती है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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