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जैनन्यायपञ्चाशती
इस विवेचन से यह ज्ञात होता है कि विभिन्न दार्शनिकों ने प्रमाण का जो लक्षण प्रस्तुत किया है वह सर्वथा अनुपयुक्त है, क्योंकि उन्होंने इन्द्रियव्यापार आदि जड़ पदार्थ को ही प्रमाण माना है। वह उचित नहीं है, इसलिए ग्रन्थकार द्वारा किया गया हेय-उपादेय का विवेचक ज्ञान ही प्रमाण मान्य है, क्योंकि वही स्व-पर का प्रकाशक है।
(३) ज्ञानं दीप इव स्व-पर-प्रकाशि भवतीति तस्यैव प्रमाणत्वं युक्तम्। घट इव जडत्वे ज्ञानस्य तदपि प्रकाशयितुं ज्ञानान्तरमपेक्षितं स्यादित्यनवस्थापातः स्यादिति सूचयति
ज्ञान दीपक की भांति स्व-पर-प्रकाशंक होता है, इसलिए ज्ञान का ही प्रमाणत्व उचित है। यदि ज्ञान घट की भांति जड़ होता तो उसे प्रकाशित करने के लिए ज्ञानान्तर की अपेक्षा होगी और उस ज्ञानान्तर को प्रकाशित करने के लिए अन्य ज्ञान की अपेक्षा होगी। इस प्रकार यहां अनवस्था दोष की आपत्ति आ जाती है। इसी बात को सूचित करते हुए यह कारिका लिखी जा रही है
ज्ञानान्तरमपेक्षेत जडत्वे ज्ञानमात्मनः।
एवं तदपि तेन स्यादनवस्थासमुद्भवः॥३॥ यदि ज्ञान जड़ है तो उसे अपने ज्ञान के लिये दूसरे ज्ञान की अपेक्षा होगी। दूसरे ज्ञान को फिर तीसरे ज्ञान की अपेक्षा रहेगी। इस प्रकार अनवस्था दोष का प्रसंग आ जायेगा। न्यायप्रकाशिका
यदि ज्ञानं जडं स्यात् तदा तत् प्रकाशयितुं ज्ञानान्तरस्यावश्यकता स्यात्। द्वितीयं ज्ञानमपि जडात्मकमेवेति तदपि प्रकाशयितुं तृतीयं ज्ञानमपेक्षितं भविष्यति। अनया रीत्या तृतीयं प्रकाशयितुं चतुर्थस्य, तस्यापि प्रकाशनार्थं पञ्चमस्य अपेक्षेति परम्परेयं न कदाचित् स्थैर्य यास्यति इत्यनवस्थादोषः समापतितो दुरुद्धरः स्यात्। ___ उपर्युक्तरीत्येदं सिद्ध्यति यत् हेयादेयप्रदर्शकं हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेचकं चेतनं ज्ञानमेव प्रमाणम्। यद्यपिज्ञानंजन्यते इन्द्रियार्थसन्निकर्षेणैवेति कार्यस्यज्ञानस्य
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