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________________ जैनन्यायपञ्चाशती प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान होता है, यह एक तथ्य है। उस प्रमाण का स्वरूप क्या है, इसका प्रतिपादन करने के इच्छुक आचार्य कहते हैं-स्व और पर वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है। जो ज्ञान स्वयं प्रकाशित होता हुआ दूसरों को भी प्रकाशित करता है वह स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। यहां स्वपद से प्रमाण का ग्रहण तथा परपद से प्रमाण से भिन्न अर्थात् पदार्थमात्र-घटपटादि का ग्रहण करना चाहिए। प्रत्येक दर्शन में प्रमाण उपयोगी है, इसलिए उन दर्शनों (नैयायिक, वैशेषिक, सांख्ययोगादि) में भी इसका लक्षण किया गया है। इस विषय में दार्शनिकों का मतभेद है। नैयायिकों का कहना है कि प्रमा अर्थात् यथार्थज्ञान का जो करण है वही प्रमाण है। यहां शंका होती है कि प्रमाता, प्रमेय आदि प्रमा के अनेक करण हैं किन्तु ये सब प्रमाण नहीं है, क्योंकि प्रमाता और प्रमेय के रहने पर भी प्रमा उत्पन्न नहीं होती। किन्तु विषय (पदार्थ) के साथ जब इन्द्रियों का सम्पर्क होता है तब ही प्रमा उत्पन्न होती है। इसी बात को दृष्टिगत कर निश्चय किया जाता है कि इन्द्रियसंयोगादि ही प्रमा के करण है, इसलिए वही प्रमाण है। किन्तु यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि इन्द्रियां जड़ हैं, उनका संयोग भी जड़ है। ऐसी स्थिति में जड़ पदार्थों से ज्ञान कैसे उत्पन्न होगा? इसलिए इन्द्रियसंयोगादि प्रमाण नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि इन्द्रियसंयोग को प्रमाण मानने पर अव्याप्तिदोष आ जाता है। कारण यह है कि चक्षु अप्राप्यकारी इन्द्रिय है। विषय से सम्पर्क हुए बिना ही चक्षु से विषय का ज्ञान हो जाता है, इसलिए इन्द्रियसंयोग प्रमाण नहीं है। इसी रीति से सांख्याभिमत इन्द्रियव्यापार भी प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह भी अचेतन है। इसी प्रकार मीमांसकों का अभिमत-जो ज्ञातृव्यापार का प्रमाणत्व है वह भी अनुपयुक्त है। कर्ता का जड़-अचेतन व्यापार कभी प्रमाण नहीं हो सकता। इसी पद्धति से जयन्तभट्ट के अनुसार घट के समान अज्ञानस्वरूप कारकसाकल्य का प्रमाणत्व भी खंडित हो जाता है। वास्तव में कारकसाकल्य का स्वरूप ही सुस्थिर नहीं हो पाता, इस स्थिति में उसका प्रमाणत्व कैसे सिद्ध हो सकता है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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