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________________ . जैनन्यायपञ्चाशती धर्मोऽर्थप्रकाशकत्वंकारणे इन्द्रियार्थसन्निकर्षेसमारोप्यास्यापि औपचारिकंप्रमाणत्वं वक्तुं शक्यमेवेति अत्रत्यं रहस्यम्। __यदि ज्ञान जड़ होता तो उसको प्रकाशित करने के लिए ज्ञानान्तर की आवश्यकता होगी। दूसरा ज्ञान भी यदि जड़ है तो उसे भी प्रकाशित करने के लिए तीसरे ज्ञान की अपेक्षा होगी। इस प्रकार तृतीय ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए चतुर्थ की और चतुर्थ ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए पांचवें ज्ञान की अपेक्षा होगी। इस प्रकार ज्ञान की यह परम्परा कभी भी स्थिर नहीं होगी। परिणामस्वरूप यहां अनवस्था दोष की आपत्ति आ जाएगी, जिसे दूर करना कठिन होगा। . उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि छोड़ने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों का ज्ञान तथा हित की प्राप्ति और अहित के परिहार का ज्ञान चेतन ज्ञान से ही होता है, इसलिए ज्ञान ही प्रमाण है। यद्यपि ज्ञान इन्द्रिय और वस्तु के सम्बन्ध से ही होता है। उसका धर्म है-अर्थ का प्रकाशकत्व। उस धर्म का ज्ञान के कारण इन्द्रियार्थसन्निकर्ष में आरोप करके उसका (इन्द्रियार्थसन्निकर्ष का) भी औपचारिक प्रमाणत्व कहा जा सकता है, इसका यही तात्पर्य है। (४) ज्ञानस्य प्रमाणत्वं दीपदृष्टान्तेन साधयतिअब दीपदृष्टान्त के द्वारा ज्ञान के प्रमाण को बताया जा रहा है यथा दीप्राङ्करो दीपः स्वप्रकाशी परानपि। पदार्थांश्च प्रकाशेत तथा ज्ञानमपि ध्रुवम्॥४॥ जैसे दीप्त शिखा वाला दीप स्वप्रकाशी होता है, वह दूसरे पदार्थों को भी प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान स्वप्रकाशी होता हुआ परप्रकाशी भी है। न्यायप्रकाशिका यथा दीप्रशिखो दीपः स्वं प्रकाशयितुं नापेक्षते परप्रकाशम्, किन्तु स तु स्वप्रकाशी अस्ति, तथैव स्वप्रकाशि ज्ञानमपि आत्मानं प्रकाशयितुं परप्रकाशं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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