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जैनन्यायपञ्चाशती ज्ञान अपना है। वह कहीं से आया हुआ नहीं है। उसके विपरीत दर्शनान्तर में यह बात उपलब्ध होती है कि एक ही चैतन्य है। वह बिम्बस्वरूप है। वह ईश्वर है। बिम्बभावापन्न चैतन्य ईश्वर है और प्रतिबिम्बभावापन्न चैतन्य जीव है। बिम्ब और प्रतिबिम्ब का आधार उपाधि है। उपाधि एक जीववाद में अविद्या या माया है और अनेक जीववाद में अन्त:करण होता है। इस मत का निराकरण करते हुए आचार्य कह रहे हैं कि आत्मा अनेक प्रदेशी है। अर्थात् आत्मा का नानात्व है। आत्मा कई प्रदेश वाला है। वे सब ज्ञानमय हैं। उसका ज्ञान स्वकीय ज्ञान है। वह कहीं अन्य से प्राप्त ज्ञान नहीं है। जल और चन्द्र की भांति यहां बिम्ब-प्रतिबम्बभाव नहीं होता है। वह तो मूर्त पदार्थों में ही होता है। जैसे–चन्द्र मूर्त है तथा जल भी मूर्त है। यहां तो बिम्बप्रतिबिम्बभाव तो संभव है, किन्तु महाप्रज्ञजी का कहना है कि बिम्बप्रतिबिम्बभाव यहां नहीं है, क्योंकि वह तो मूर्त पदार्थों का ही होता है। यहां तो केवल परिणमनमात्र है।
(४९) सम्प्रति लक्षणस्य स्वरूपं तदाभासांश्च वक्तुमुपक्रमतेइस समय लक्ष्य और लक्षणाभास का वर्णन कर रहे हैं -
समाकीर्णपदार्थानां व्यावृत्तिर्हेतुलक्षणम्।
लक्षणाभासता त्रेधा कीर्तिता तत्त्वविद्वरैः॥४९॥ . संकीर्णपदार्थों की व्यावृत्ति का जो हेतु है वह लक्षण है। न्याय के विशेषज्ञ विद्वानों ने लक्षणाभास के तीन प्रकार बतलाये हैं। न्यायप्रकाशिका
मिलितानामनेकेषां पदार्थानां मध्ये एकस्य पदार्थस्य तस्मात् । समुदायघटकान्यस्मात् पदार्थात् पृथक्करणं व्यावृत्तिलक्षणस्य प्रयोजनम्। यथा जैनदर्शने जीवाजीवात्मकस्य पदार्थनवात्मकस्य मध्ये जीवस्य लक्षणं कृतं वर्तते-'चेतनालक्षणो जीवः' इति। अनेन जीवस्य लक्षणेन जीवपदार्थोऽजीवादिभ्यः पदार्थेभ्यः पृथक् भवति। एवं लक्षणलक्षित एव जीवो
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