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जैनन्यायपञ्चाशती
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एव सम्प्राप्तम । एतत् सर्वं निराकुर्वन् कथयति यत् शरीरव्याप्त आत्मा कस्याप्युपाधेः प्रतिबिम्बं नास्ति । तस्य स्वकीया सत्ता स्वतन्त्रा । अस्यां स्थितौ आत्मा सोपाधिकचैतन्यस्य परमात्मनः प्रतिबिम्बभूतोऽस्ति इति कथनं न भांति मनोरमम्। जलचन्द्रप्रतिबिम्बस्य नात्र स्थितिः । मूर्त पदार्थस्यैव बिम्ब प्रतिबिम्बभावः ।
आत्मा असंख्य प्रदेशी है। इसमें असंख्य प्रदेश हैं । प्रदेश किसे कहते हैं, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कह रहे हैं कि इस संसार में सबसे सूक्ष्म एक तत्त्व है । वह निरवयव होता है इसे परमाणु कहा जाता है। परमाणु के प्रचय (समूह) को स्कन्ध कहते हैं। उसके अविभाज्य, अपृथक्ंभूत अंश को प्रदेश कहते हैं । इस प्रकार के असंख्यात प्रदेश से समन्वित आत्मा होता है। आत्मा के सारे प्रदेश ज्ञानमय है। चेतन और ज्ञान दोनों एक ही वस्तु है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि आत्मप्रदेश ज्ञानमय तथा चैतन्य युक्त होते हैं ।
कुछ दार्शनिकों का मत है कि आत्मा दो प्रकार का होता है - जीवात्मा और परमात्मा । इनमें प्रति शरीर में व्याप्त जीव परमात्मा का प्रतिबिम्ब है । उसका चैतन्य परमात्मा से प्राप्त है । उसका ज्ञान स्वयं का न होकर परमात्मा से प्राप्त होता है । इन सब बातों का निराकरण करते हुए कह रहे हैं कि शरीर व्याप्त आत्मा किसी उपाधि का प्रतिबिम्ब नहीं हैं। उसकी सत्ता स्वतंत्र है । ऐसी स्थिति में आत्मा सोपाधिक चैतन्य (ईश्वर) का प्रतिबिम्ब नहीं है । इस प्रकार आत्मा का असंख्य प्रदेशी होना युक्त ही है।
(४८)
आत्मनः प्रतिबिम्बत्वं निराकरोति
जीवात्मा के प्रतिबिम्बत्व का निराकरण कर रहे हैं
भवेत्तद् विक्रियायाः सामर्थ्यमुभयोस्तदा ।
अन्यथा कश्मले तोय तद् भावेऽपि हि तन्न किम् ? ४८ ॥
जल में प्रतिबिम्ब होता है, वह परिणमन है । उसमें जल और बिम्ब दोनों का सामर्थ्य है, अन्यथा मलिन जल में बिम्ब के होने पर भी प्रतिबिम्ब क्यों नहीं होता ?
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