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________________ जैनन्यायपञ्चाशती 95 तम पौद्गलिक है। जहां स्पर्श, रस, वर्ण और गन्ध रहता है, वह पुद्गल है । तम में नीला या कृष्ण वर्ण स्पष्ट प्रतीत होता है। शीत स्पर्श की अनुभूति वहां होती ही है। इस प्रकार स्पर्श और वर्ण तो वहां उद्भूत हैं तथा रस और गन्ध वहां अनुद्भूत हैं। इस प्रकार स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण- इन चारों का आश्रय तम पौद्गलिक है । इसमें कोई संशय नहीं है । इस प्रकार यह तम गुण और पर्याय का आश्रय होने के कारण द्रव्य कहा जाता है। न्यायदर्शन में गुण और क्रिया के आश्रय को द्रव्य कहा जाता है - गुणक्रियाश्रयो द्रव्यम् यहां गुण पद से रूप रस गन्ध, स्पर्श आदि चौबीस गुणों का तथा क्रियापद से गमन, चलन आदि क्रियाओं का ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार के गुण और क्रिया के आश्रय को द्रव्य कहा जाता है। तम के लिए कहा जाता है कि 'नीलं नमश्चलति' अर्थात् नीला अंधेरा चल रहा है। यहां नीलपद से तम की रूपवत्ता तथा 'चलति' इस पद से उसकी क्रियावत्ता की प्रतीति होती है। इस प्रकार के विवेचन से तम के द्रव्यत्व का प्रतिपादन करने वाला न्यायदर्शन तम के विषय में सन्देह करता हुआ कहता है कि तम द्रव्य नहीं है। वह तो तेज का अभाव रूप हैं। इस मत का निराकरण करते हुए आचार्य कह रहे हैं कि तम तेज का अभाव नहीं है। जो पौद्गलिक है और गुण तथा क्रिया का आश्रय है उसके द्रव्यत्व का निराकरण नहीं किया जा सकता है। उसके द्रव्यत्व का मुञ्चन कौन कर सकता है यदि कहा जाए कि न्यायदर्शन के अभिमत नौ द्रव्यों के अन्तर्गत जिस किसी द्रव्य में तम का अन्तर्भाव कर देने से जब कार्य चल सकता है, तब दशवां द्रव्य तम को मानने की क्या आवश्यकता है? किन्तु उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि नव द्रव्यों में आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन-इन पांच अरूपी द्रव्यों में रूपवान् तम का अन्तर्भाव यत्नसहस्र से भी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार निर्गन्ध तम का अन्तर्भाव गन्धवती पृथ्वी में भी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार शीत स्पर्श वाले जल तथा उष्ण स्पर्श वाले तेज में भी स्पर्शविहीन तम का अन्तर्भाव नहीं हो सकता । रूपरहित स्पर्शवान् वायु में भी रूपरहित तम का अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। इस प्रकार यह बात सिद्ध होती है कि तम एक द्रव्य है। इसके विपरीत तम को द्रव्य न मानने वालों का कहना है कि तम में जो चलन क्रिया की प्रतीति होती है वह दीपक के अपसरण प्रयुक्त हैं। इस बात के उत्तर में तम के द्रव्यवादियों का कहना है कि उपर्युक्त कथन से तम को द्रव्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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