________________
90
जैनन्यायपञ्चाशती यस्य द्रव्यस्य यो गुणो भवति स गुणः स्वद्रव्यगुणतुल्यगुणवान् भवति। यथाजलस्य गुणः शीतस्र्शोऽस्ति। अयं शीतस्पर्शः जलं कदापि न मुञ्चति। यदि शैत्यं कथञ्चित् जलं मुञ्चेत् चन्द्रमसंवा त्यजेत् तदा तत्र गुणगुणिभावो भवितुं नैव शक्नोति। अत एव लिखितं कारिकायां यत् 'यो हि यस्य गुणः स स्यात्तुल्यधर्मा हि तस्य च।' यः पदार्थो यस्य गुणो भवति स गुणिनस्तुल्यधर्मा एव भवति। यथा-आत्मा अमूर्तः, तद्गुणो ज्ञानं चाप्यमूर्तम्। अत एवात्र ज्ञानात्मनोर्युक्त एव गुणगुणिभावः। अस्यां स्थितौ न्यायदर्शने आकाशं लक्षयता यदुक्तं शब्दगुणकमाकाशमिति अर्थात् शब्द एव गुणो यस्य तदेवाकाशमिति। तन्न युक्तम्। यतो हि आकाशममूर्तमस्ति। अतस्तस्य गुणेनामूर्तेन भाव्यम्। न चास्ति तद्गुणः शब्दोऽमूर्तः। शब्दस्तु पुद्गलप्रचयोऽस्ति। पुद्गलश्च स्पर्शरसगन्धवर्णवान् भवति। एवं लक्षणलक्षितपुद्गलसमूहः शब्दो मूर्त एव न तु अमूर्तः। यदि शब्द आकाशगुणः स्यात् तदा अमूर्तः स्यात् न च शब्दस्तादृश इति शब्दो नाकाशगुणः।अयमेवास्याः कारिकायाः आशयः।
'एगदव्वसिआ गुणा'-इस आगमवचन के अनुसार गुण गुणी में रहता है। वह गुण समवायसम्बन्ध से रहता है। समवाय नित्य सम्बन्ध है। इसलिए गुणगुणी का नित्य सम्बन्ध है। जिस द्रव्य का जो गुण होता है वह गुण अपने द्रव्य के गुण के समान गुणवान् होता है, जैसे-जल का गुण शीतस्पर्श है। यह शीत स्पर्श जल को कभी नहीं छोड़ता। यदि शीतलता कभी जल को छोड़ दे अथवा चन्द्रमा को छोड़ दे तो उसमें गुणगुणि-भाव हो ही नहीं सकता। इसीलिए कारिका में लिखा गया है कि जिसका जो गुण होता है वह उसी के तुल्यधर्म वाला होता है। जो पदार्थ जिसका गुण होता है वह गुणी के तुल्यधर्म वाला ही होता है। जैसे-आत्मा अमूर्त है, उसका गुण ज्ञान भी अमूर्त है, इसलिए ज्ञान और आत्मा का गुणगुणिभाव युक्त ही है। इस स्थिति में न्यायदर्शन में आकाश का लक्षण करते हुए जो कहा गया है-'शब्दगुणकमाकाशम्' अर्थात् शब्द ही जिसका गुण है वही आकाश है, यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि आकाश अमूर्त है, इसलिए उसका गुण भी अमूर्त होना चाहिए। उसका गुण शब्द
१. तर्कसंग्रहः पृ. ११ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org