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जैनन्यायपञ्चाशती उनका लक्षण है। पुद्गलों का प्रचय पुद्गलसमूह है, जिसमें ये चारों (वर्णादि) रहते हैं वह पदार्थ रूपी-मूर्त होता है। इसलिए शब्द मूर्त ही है, वह सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का होता है। प्रकारान्तर से यह जीव, अजीव और मिश्र का भेद भी कहा जाता है। मनुष्य आदि चैतन्यवान् प्राणियों से होने वाला शब्द सचित्तशब्द है जैसे-पशु, पक्षी एवं मनुष्यों का शब्द । अचेतन जड़ आदि पदार्थों से उत्पन्न शब्द अचित्त शब्द है। जैसे टूटते हुए काष्ठ आदि पदार्थों का शब्द। सचित्त और अचित्त के संयोग से प्रादुर्भूत शब्द मिश्र शब्द है। जैसे-वीणा वादन का शब्द, कांस्य, ताल और झल्लरी का शब्द।।
__ जैनदर्शन के अनुसार शब्द को आकाश का गुण स्वीकार नहीं किया गया है। नैयायिक आदि जो दार्शनिक ऐसा मानते हैं वह उचित नहीं है, क्योंकि गुण गुणी में रहता है। आकाश अमूर्त है और शब्द मूर्त-ऐसी स्थिति में मूर्त शब्द पौद्गलिक होने के कारण आकाश का गुण कैसे हो सकता है? क्योंकि शब्द और आकाश परस्पर गुणगुणी-भाव नहीं है। इसीलिए गुणगुणी के अभाव के कारण शब्द आकाश का गुण नहीं है, किन्तु द्रव्य ही है।
(४०) दृष्टान्तद्वारा शब्दस्याकाशगुणत्वं निराकरोतिदृष्टान्त के द्वारा शब्द के आकाशगुणत्व का निराकरण कर रहे हैं- .
यो हि यस्य गुणः स स्यात्तुल्यधर्मा हि तस्य च।
अमूर्तस्यात्मनो ज्ञानं गुणोऽमूर्तं यथा भवेत्॥ ४०॥ जो जिस द्रव्य का गुण होता है वह उसी द्रव्य के तुल्य धर्मवाला होता है, जैसे-अमूर्त आत्मा का गुण ज्ञानं अमूर्त है वैसे ही अमूर्त आकाश का गुण शब्द भी अमूर्त होना चाहिए। न्यायप्रकाशिका .
'एगदव्वस्सिआ गुणा'' इत्यागमवचनात् गुणो गुणिनि तिष्ठति। स च समवायसम्बन्धेन।समवायश्च नित्यः सम्बन्धः।अतो गुणगुणिनोः नित्यसम्बन्धः।
१. उत्तरज्झयणाणिः २८/६।
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