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आयागपटों पर चित्रित जिन प्रतिमा इसका प्रबल निदर्शन है। आयाग पट एक प्रकार के प्रशस्तिपत्र अथवा गुणानुकीर्तन पत्र है। इनमें जिन प्रतिमाएं लाञ्छन शून्य है। कुषाणकालीन जैन प्रतिमाएं प्राचीनतम् निदर्शन है।30 .
___ मालवा में जैन प्रतिमाएं प्रचुर मात्रा में एक कलाकारिता लिये हुए प्राप्त हुई है। साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर हमें विदित होता है कि चण्डप्रद्योत ने जीवंतस्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा मन्दसौर में करने हेतु एवं उसकी सेवा आदि के लिये 1200 गांव दान में दिये थे। किन्तु इस काल के कोई अवशेष प्राप्त नहीं होते। श्री दे.रा.पाटिल का कहना है कि सारंगपुर में कोई जैन अथवा हिन्दू मंदिर नहीं है, परन्तु उनके खण्डहर अवश्य मिलते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वहां जैन प्रतिमाएं भी होना चाहिये थी जो नहीं हैं शक-कुषाण काल में जैनधर्म उन्नतावस्था में था, यह विदित होता है, किन्तु इसके प्रमाण में हमें कोई पुरातात्विक अवशेष अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। सम्भवतः भविष्य में कहीं उपलब्ध हो जाय।
गुप्तकाल : इस युग में सभी धर्मों की उन्नति के समान अवसर मिले। मालवा में जैनधर्म सम्बन्धी पुरातात्विक अवशेष भी हमें सर्वप्रथम इसी समय से मिलने लगते हैं। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व चौथी शताब्दी की तीन तीर्थंकरों की अत्यन्त दुर्लभ प्रतिमाएं विदिशा के निकट बैसनदी के तटवर्ती एक टीले की खुदाई करते समय प्राप्त हुई है। ये तीनों मूर्तियां बलूए पत्थर की बनी है। इन तीनों की चरण चौकियों पर गुप्ताकालीन ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषा में लेख उत्कीर्ण थे। एक मूर्ति का लेख पूर्णतया नष्ट हो चुका है। दूसरी मूर्ति का लेख आधा बचा है और तीसरी का पूरा सुरक्षित है। लेखों के अनुसार इन मूर्तियों का निर्माण महाराजाधिराज श्रीरामगुप्त के शासन काल में हुआ। एक प्रतिमा पर आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का और दूसरे पर नवें तीर्थंकर पुष्पदन्त का नाम लिखा है। मूर्तियों की निर्माण शैली ईसवी चौथी शती के अंतिम चतुर्थांश की कही जा सकती है। इन मूर्तियों में कुषाणकालीन तथा ईस्वी 5वीं शती की गुप्तकालीन मूर्तिकला के बीच के युग के लक्षण द्रष्टव्य है। मथुरा आदि से प्राप्त कुषाणकालीन बौद्ध और तीर्थंकर प्रतिमाओं की चरण चौकियों पर सिंहों जैसा अंकन प्राप्त होता है वैसा इन तीन मूर्तियों पर लक्षित है। प्रतिमाओं का अंक विन्यास तथा सिरों के पीछे अवशिष्ट प्रभामण्डल भी अन्तरिम काल के लक्षणों से युक्त है। इनमें उत्तरगुप्तकालीन अलंकरण का अभाव है।
लिपिविज्ञान की दृष्टि से भी ये प्रतिमालेख ईस्वी 4थी शती के ठहरते हैं। इन लेखों की लिपि गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के उन लेखों से मिलती है जो सांची और उदयगिरि की गुफाओं में मिले हैं।
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