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________________ (13) नागदा जाति : जैसा नाम से ही विदित है कि इसकी उत्पत्ति मेवाड़ के नागदा नामक स्थान में हुई। अन्य बातों में यह जाति भी चित्तौड़ा जाति के .. समान ही है। पन्द्रहवीं सदी के भट्टारक ज्ञानभूषण ने 'नोगद्राराव' नामक पुस्तक लिखी जिसमें जैनियों की नागदा जाति के इतिहास का वर्णन है। यह जाति भी मूलसंघ तथा काष्ठासंघ दोनों ही से सम्बन्धित है।49. (14) धरवट वंश : इस वंश के लोग दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में पाये जाते हैं। धम्मपरीक्षा का लेखक हरिषेण जो कि 10वीं सदी में हुआ था, इसी जाति का था। पं.नाथूराम प्रेमी इस जाति की उत्पत्ति सिरोंज से मानते हैं। यह सिरोंज टोंक रियासत में था जो रियासतों के एकीकरण के बाद राजस्थान में तथा बाद में नवीन मध्यप्रदेश में सम्मिलित किया गया और विदिशा जिले में है। श्री अगरचन्द नाहटा इसकी उत्पत्ति धमड़गढ़ से मानते हैं जहां से माहेश्वरियों की धकड़ शाखा की उत्पत्ति हुई। (15) श्रीमोड़ जाति : इसे श्रीमूह भी कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति प्राचीन मोड़ेरा नगर जो कि अनहिलवाड़ के दक्षिण में था, से मानी जाती है। सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्रसूरि इसी जाति में जन्में थे। 12वीं सदी में इस जाति का उल्लेख मिलता है। मांडवगढ़ जैन मंदिर के अन्दर रही प्रतिमाओं के लेख बदनावर के श्री नंदलाल लोढ़ा ने संग्रह किये हैं। मुझे गणिवर्य श्री अभयसागरजी महाराज के सौजन्य से श्रीलोढ़ा के द्वारा संग्रहित लेख प्राप्त हुए, उनमें से एक लेख सं.1513 का है जिसमें श्रीमोड़ जाति का उल्लेख है : संवत् 1513 वर्ष ज्येष्ठा बदी 5 मोड़ ज्ञातीय स. लखमा लखमादे स.समघरेण भार्या मांई सुत देवीसिंग हिंगा गुणी आहा सा पावा प्रमुख कुटुम्ब युतेन सुत्रेयसे श्री अनंत नाथादि चतुर्विशती पट्टः आगम गच्छ श्री जयानन्दसूरि पट्टे श्री देवरन्तसूरि गुरु पादासनकारितः प्रतिष्ठापित्रु शुर्भभवतु सिरषिज वासल्य .. यह लेख धातु की चौबीसी पर है। इस लेख से आगम गच्छ तथा एक दो आचार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है।। साथ ही श्रीमोड़ जाति का मालवा में अस्तित्व संवत 1513 में प्रमाणित होता है। अर्थात् अपने मूल स्थान से यह जाति सं.1513 से पूर्व निकल कर देश के अन्य भागों में फैलने लगी थी। अतः इस जाति की उत्पत्ति का समय इस सन्दर्भ से तथा पूर्वाक्त 12वीं सदी के उल्लेख से पर्याप्त प्राचीन हो जाता है। जिसे हम 8वीं 10वीं शताब्दी के आसपास तक ले जा सकते हैं किन्तु किसी निश्चित प्रमाण के अभाव में हम कुछ भी निश्चित रूप से कहने की स्थिति में नहीं हैं। मालवा में जैन जातियों का बाहुल्य तो है ही किन्तु कुछ ऐसी भी जातियां Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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