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________________ जिनसेन ने इनकी एक जाति बना दी और राजधानी खण्डेला के नाम पर इस जाति को खण्डेलवाल कहा तथा 84 नगरों में स्थिति से 84 गोत्रों की स्थापना की। इन गोत्रों, नगरों, राज्यों तथा इनके परिवारों की सूची श्रीपालचन्द्र यति की सम्प्रदाय शिक्षा तथा श्रीरामलाल की महाजन वंश मुक्तावली, पी.डी.जैन की । विजातीय विवाह मीमांसा और श्री के.पी.जैन के संक्षिप्त जैन इतिहास में दी गई दूसरे विवरण के अनसार ऐसा वर्णन मिलता है कि चार सैनिक भाई थे। एक दिन वे शिकार खेलने गये और एक साधु के प्रिय हिरण को मार डाला। वह साधु उनको शाप देकर नष्ट करने जा ही रहा था कि चारों ने शिकार न करने तथा सैनिक वेश छोड़ने का वचन दिया। तब से ये खण्डेलवाल कहलाये। वर्तमान खण्डेलवालों की उत्पत्ति भी उन्हीं से हुई। 24 उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि खण्डेलवाल मूल रूप से क्षत्रिय थे और बाद में व्यापारिक व्यवसाय के कारण वैश्य हो गये। 25 यह बात ध्यान देने की है कि जिस प्रकार अन्य जैन जातियों में दसा बीसा भेद है, उस प्रकार का कोई भेद खण्डेलवालों में नहीं है। मालवा में खण्डेलवाल जैन हैं। तेरहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में मालवा के रुलखण्पुर नामक गांव में खण्डेलवाल वंश के व्यक्तियों के रहने का उल्लेख मिलता है। इससे विदित होता है कि 12वीं सदी के मालवा में खण्डेलवाल जैनियों का अस्तित्व था। इनके जो 84 गोत्र हैं वे या तो शहरों के नाम पर बने हैं या व्यक्तियों के नाम से प्रचिलत हैं। खण्डेलवाल जाति के लोग पर्याप्त धनाढ्य हैं। (5) परवार जाति : परवार जैनियों में एक प्रसिद्ध जाति है। हिन्दुओं में भी परवार जाति होती है किन्तु अधिकांश परवार जैन धर्मावलम्बी ही हैं। जैनियों में भी विशेषकार ये दिगम्बर जैन हैं। परवार जैन उत्तरप्रदेश, राजपूताना, बिहार, बम्बई तथा मालवा में पाये जाते हैं। परवारों की उत्पत्ति तथा नाम के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती किन्तु यह स्पष्ट है कि इस जाति की उत्पत्ति राजपूताना में ही कहीं हुई। परवारों की पहचान परवाड़ों से की जाती है, जो कि राजपूताना के हैं।27 परवारों में चरनागर या समैया नामक एक अलग भेद जैनों में है। यह चरनागर या समैया जाति तारणपंथी को मानने वाली छः जातियों में से एक है। परवार स्वयं भी दो भागों में बंटे हुए हैं। यथा (1) अठशाखा परवार (2) चौशाखा परवार। इनमें अठशाखा परवारों का स्तर ऊंचा है और चौशाखा परवारों का स्तर नीचा है। यदि अठशाखा वाला, चौशाखा वाले से विवाह | 48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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