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पार्श्वनाथ मंदिर की एक श्याम शांतिनाथ की मूर्ति सं.1191 की तथा एक छोटी ऋषभनाथ की सं.1548 की है परन्तु इन पर किसी के नाम नहीं पढ़े जाते। परन्तु पोरवाड़ों की मालवे में उपस्थिति का विश्वसनीय कोई प्रमाण वि.सं.1542 के पूर्व का अभी उपलब्ध न होने से इन लोगों का इधर आगमन काल निश्चित होना बाकी रहा है। श्रीमाली गौर मालव निवासी कई पोरवाल महाजनों को उनके आठ गोत्र बताते हैं। श्रीमाल पुराण का विश्वास किया जाय तो पोरवाड़ (प्राग्वाट) पुल्खा के भेजे हुए क्षत्रिय अवश्य थे। देवास के श्री पार्श्वनाथ मंदिर में चक्रेश्वरी के पास वाली मूर्ति पर सं.1683 का जो लेख है, उसमें पोरवाड़ तथा चौधरी गोत्र का उल्लेख है। इसी प्रकार सं.1383 वाले लेख में पोरवाड़ जाति का मालव देश में होना उल्लिखित है। चौधरी कुल देवास में शाही सेवा में था तथा प्रतिष्ठित कुल था।
जयसिंहपुरा दिगम्बर जैन संग्रहालय के एक प्रतिमा लेख में भी पोरवालों का स्पष्ट उल्लेख है।लेख वि.सं.1222 का है। इससे भी प्रमाण्ति होता है कि 12वीं सदी पूर्व मालवा में पोरवाड़ों का अस्तित्व था। इस प्रकार पोरवाड़ जाति का मालवा में अस्तित्व पर्याप्त प्राचीन है तथा इस जाति का उल्लेख शाही सेवा में भी आया है जिससे इसकी प्रतिष्ठा का पता चलता है।
(4) खण्डेलवाल : खण्डेलवाल जैनियों का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। खण्डेलवाल हिन्दुओं में भी पाये जाते हैं किन्तु अधिकतर खण्डेलवाल जैनियों में ही होते हैं। सामान्यतः समस्त खण्डेलवाल जैन दिगम्बर मतावलम्बी हैं और श्वेताम्बरों में खण्डेलवाल जाति के जैन नहीं पाये जाते। ये मालवा व राजपूताना में फैले हुए हैं। वैसे बम्बई, बिहार, उत्तरप्रदेश में भी ये बसे हैं, किन्तु इनकी कुल आबादी का तीन चौथाई भाग राजपूताना और मालवा में बसता है। इनकी उत्पत्ति खण्डेला के राजा चौहान वंशी खण्डेलगिर से मानी जाती है। खण्डेला के अन्तर्गत 87 नगर थे जो विभिन्न राजपूत वंशों द्वारा शासित थे। यथा- सूर्यवंशी, सोमवंशी, हेमवंशी आदि। विक्रम की प्रथम शताब्दी में महापारी फैली जिसे रोकने के लिये तत्कालीन राजा ने, जो ब्रह्मणों के प्रभाव में था, नरबलियां दीं। जिनमें एक जैनाचार्य भी था। महामारी कम होने के बजाय अधिक तेजी से फैलने लगी। इसी समय जिनसेनाचार्य विहार करते हुए वहां पहुंचे। राजा ने बीमारी के अधिकं फैलने का कारण पूछा। जिनसेनाचार्य ने कहा कि बीमारी अधिक इस कारण फैल रही है कि पूर्व में एक जैनाचार्य की बलि दी जा चुकी है। साथ ही जिनसेनाचार्य ने राजा को जैनधर्म ग्रहण करने की भी सलाह दी। तदनुसार राजा तथा 84 स्थानों के निवासियों ने जैनधर्म में दीक्षा ग्रहण करली। आचार्य
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