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________________ सम्बन्ध स्थापित करता है तो इसकी शाखा में भी भेद आ जाएगा। इन परवारों में निम्नश्रेणी की एक जाति और होती है जो 'बिनाइकिया' कहलाती है। सागर जिले में बिनाईका नामक एक ग्राम है। किन्तु यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इस जाति का नाम इस गांव के आधार पर रखा गया। इसे लघु श्रेणी के नाम से भी पुकारा जाता है। ये बिनाइकिया चार भागों में बंटे हुए हैं जिनमें से दो अधिक प्रसिद्ध हैं। यथा पुराने बिनाइकिया और नये बिनाइकिया। इन बिनाइकियाओं की संख्या भी पर्याप्त है तथा दिन प्रतिदिन और भी बढ़ती ही चली जा रही है। (6) अग्रवाल : अग्रवाल जाति के इतिहास के पूर्व अग्रवाल शब्द की मीमांसा श्री गुलाबचन्द एरन ने इस प्रकार की है: ___(1) श्रीमान् पंडित अम्बिकाप्रसादजी वाजपेयी ने अग्रवाल शब्द का शुद्ध रूप आगरवाला लिखा है जो उसका अर्थ आगर (मालवे का एक नगर जो उज्जैन के पास है) के रहनेवाला किया है। इस प्रकार उक्त पंडितजी ने अग्रवालों का आदि स्थान मालवे का आगर नगर को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जो कि भ्रांतिमूलक है। क्योंकि आगर में ऐसा कोई भी चिह वर्तमान में विद्यमान नहीं जिससे आगर को अग्रवालों की जन्मभूमि कही जा सके। (2) अग्रवाल रत्न बाबू जगन्नाथप्रसादजी रत्नाकर ने कल्पना की है कि अग्रवाल किसी समय क्षत्रिय थे और सेना के अग्रभाग की रक्षा किया करते थे, जिससे अग्रपाल कहलाते थे। यह अग्रपाल कालान्तर में अग्रवाल बन गया। निःसन्देह इसके लिये कोई प्रमाण नहीं है। ___ अग्रवाल-अग्रपाल थे इसलिये कालान्तर में अग्रवाल बन गये- इसमें संदेह है क्योंकि सेना के वर्णन में कहीं भी अग्रपालशब्द देखने में नहीं आता। फिर यदि यह भी मान ले कि सेना के अग्रभाग के रक्षक को अग्रपाल कहते थे तो इसके साथ ही पश्चाद् भाग रक्षक का भी ऐसा ही नाम होना चाहिये। जिसके विषय में कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया। (3) कुछ विद्वानों का कथन है कि प्राचीन समय में इस देश में सब ही लोग धर्मात्मा व अग्निहोत्री थे। प्रत्येक घर में नित्य नैमित्तिक यज्ञ हुआ करते थे। उन दिनों में यज्ञार्थ अगर की लकड़ी का बहुत व्यापार होता था। अस्तु। जिस वैश्य समुदाय ने अगर की कृषि तथा व्यापार किया वह समुदाय अगरवाला कहलाने लगा। पश्चात् अगरवाला का संस्कृत रूप अग्रवाल बना लिया गया। परन्तु यह युक्ति भी असंगत प्रतीत होती है। इसलिये अमान्य है। (4) पंडित हीरालालजी शास्त्री ने 'अग्रवाल वैश्योत्कर्ष' नामक पुस्तक में 49 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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