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________________ हो रहा था और इस कार्य में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के विभिन्न संस्कारों को सम्पन्न कराने वाले ब्राह्मण वर्ग कर्मकाण्ड द्वारा लोगों को परलोक संबंधी सुख के लोभ से लुभाकर स्वार्थ साध रहे थे। अपने तथाकथित ज्ञान को भी वे अपने तक ही सीमित रखना चाहते थे यद्यपि उसे वे देव सम्मत घोषित करते थे। उस ज्ञान पर उनका एकाधिकार था परिणामतः जनता में उनके प्रति असंतोष था। देश में जो संघ बद्ध विचारक सत्य की खोज में घूम रहे थे उनकी चुनौती जो बौद्धिक थी उसका समाधान भी ब्राह्मणों के पास न था। (3) रूढ़िवादी धाराओं के प्रवाह ने जीविकोपार्जन के साधनों को जाति विशेष तक सीमित कर दिया था और किसी क्रांतिकारी विचार को क्रियात्मक रूप देने वाले समाज द्वारा तत्काल कुचल दिया जाता था। इससे निम्नवर्ग के लोगों में घोर असंतोष छाया हुआ था और वे मानव मात्र के एक ऐसे सच्चे उद्धारक के नेतृत्व में जीवन को मुक्त एवं वास्तविक शांति उपलब्ध करने के लिये आतुर थे। (4) इस समय तक जितने धर्मग्रन्थों, वेदों, उपनिषदों और पुराणों आदि का सृजन हुआ था, वे सब संस्कृत भाषा में ही थे। यहां तक कि रामायण और महाभारत आदि जैसे परम उपयोगी ग्रन्थों की भाषा भी संस्कृत ही थी जो सामान्यजन की बोलचाल की भाषा से अत्यंत क्लिष्ट थी। ऐसी दशा में ईश्वर और जीव की परिभाषा भी केवल ब्राह्मण ही जानते थे और वे अपना ज्ञान दूसरों को बताने में संकुचित दृष्टिकोण रखते थे। ऐसे समय में गौतम और महावीर ने जन-सामान्य की भाषा का प्रयोग किया जो सबके लिये समझना सरल हो गया। (5) स्त्रियों की स्थिति भी उत्तम नहीं कही जा सकती। यद्यपि ब्रह्मवादिनी स्त्रियों के उदाहरण मिलते हैं। तथापि वे शिक्षा से प्रायः वंचित हो चुकी थी क्योंकि परिवार के सदस्यों को सुविधा पहुंचाने और संतान उत्पत्ति के अतिरिक्त कोई विशेष अवसर नहीं दिया जाता था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि स्त्रियों का नैतिक स्तर. दिन-प्रतिदिन अधःपतन की दिशा में ही गिरता जा रहा था। .... (6) सामान्य वर्ग में ईश्वर और जीवन के विषय में चर्चा तो अधिक होती थी और यज्ञ-अनुष्ठानों का जोर भी था, किन्तु ये कार्य केवल धनी मानी लोग ही कर सकते थे एवं जनसाधारण तथा निम्नवर्ग के लोग इतना समय व्यय करने में असमर्थ होने के कारण इनमें उचित रूप से भाग नहीं ले सकते थे। - इस प्रकार इस समय ब्राह्मण वर्ग निश्चेष्ट तथा उत्तरदायित्वहीन हो चला था और देश एवं समाज का नैतिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्रों में वास्तविक नेतृत्व करने वाले निस्वार्थ मार्गदर्शकों की आवश्यकता थी। यहां यह उल्लेख कर देना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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