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अध्याय
जैन धर्म का ऐतिहासिक महत्त्व
ऋग्वैदिक काल पुरोहित का काल था जब प्रकृति के देवताओं देवियों की उपासना होती थी और कर्मकाण्ड का प्राधान्य था ।
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उत्तर वैदिक काल में भूत प्रेत, यन्त्र, मन्त्र तन्त्र एवं जादू टोना आदि में लोगों का विश्वास और भी अधिक बढ़ चुका था। प्राचीन वैदिक देवताओं, जो कि कर्मकाण्ड के प्रतीक थे, के स्थान पर इस समय नये नये देवताओं की पूजा, प्रतिष्ठा, जब एक भार अथवा भारी बोझ के समान लोगों पर जबरन थोपी जा रही थी। इस कारण इस अज्ञान को दूर करने के लिये नवीन दार्शनिक सिद्धान्तों और सम्प्रदायों का उदय हो रहा था। यह स्वाभाविक भी है कि जब मनुष्य प्राचीनता से ऊब जाता है तो मनुष्य उनके प्रति विद्रोह कर उठता है। दूसरे शब्दों में हम बौद्ध धर्म और जैनधर्म को तत्कालीन वर्तमान धर्म के प्रति विद्रोह की संज्ञा दे सकते हैं। इस युग में महान् चेता जैसे मवखलि गोसाल, अजितकेस कम्बलिन, आलारकालाम, प्रबुद्ध कच्चान, गौतम बुद्ध तथा महावीर अपने अपने संघ बनाकर घूम रहे थे और इस चिंता में थे कि सांसर में दुःख क्यों होता है, इसका कारण क्या है, इसका निवारण किस प्रकार हो सकता है? इन चेताओं के मन में तत्कालीन धर्म के प्रति असंतोष था और उससे एक मार्ग की तलाश में ये नेता थे। यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करें तो इस धार्मिक क्रांति के निम्नलिखित कारण दिखाई देते हैं:
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(1) ऐसा नहीं कि केवल भारत में ही उस काल धार्मिक क्रांति हुई हो । सारे सेसार मैं उस काल बौद्धिक गवेषणा और समसामयिक विश्वासों के प्रति चुनौती हवा में थी। भारत में संघबद्ध चिंतक, चीन में कन्फ्यूशस और लाओ - त्जू, ईरान में जरथुस्थ और इस्रायल में पुराने पौथी के नबि सभी नये बौद्धिक जगत् का निर्माण कर रहे थे, पुराणवाद को ललकार रहे थे। उस काल बाइबिल की पुरानी पौथी के नबियों की भांति तो खरा और निर्भिक बोलने वाले विचारक कहीं नहीं थे।
(2) देश में उस समय विभिन्न प्रकार के यज्ञों और अनुष्ठानों का प्राबल्य
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