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________________ भी आवश्यक है कि यदि गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर ने अवतरित होकर ब्राह्मण धर्म के रूढ़िवाद पर कुठाराघात न किया होता तो कदाचित भारत का समस्त ज्ञान लुप्त हो जाता। यह एक अटल सत्य है कि बाद में इन धर्म गुरुओं के पीछे सम्प्रदायों का रूप धारण करने वाले बौद्ध एवं जैन धर्मों में लुप्त प्रायः वैदिकधर्म को पुनर्जागृत करने के लिये एक उत्तेजक प्रतिक्रिया का कार्य किया किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि जैनधर्म भी उतना ही प्राचीन है जितना वैदिक धर्म' और इसके समर्थन में ये विद्वान् सैंधव सभ्यता में प्राप्त पशुपति या योगी मूर्ति तथा ऋग्वेद के कैशी सूक्त' में वर्णित तपस्वियों और श्रमणों का सम्बन्ध प्रतिपादित करते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में जैनधर्म के प्रमुख तीर्थंकर ऋषभदेव का सन्दर्भ भी देते हैं। इसी प्रकार वे अथर्ववेद', गौपथ ब्राह्मण, श्रीमद् भागवत आदि के प्रमाण प्रस्तुत कर जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करते हैं। इसी तारतम्य में यह उल्लेख कर देना भी उचित ही होगा कि जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर की गणना है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में बताया जाता है। इनके अतिरिक्त 23 और तीर्थंकर हुए हैं। बाईस तीर्थंकरों के विषय में ठीक ठीक ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं जिनका जन्म बनारस के राजा अश्वसेन के यहां क्षत्रिय कुल में हुआ था। इनकी माता का नाम वामा था। कुशस्थल देश के राजा नरवर्मन् की राजकन्या प्रभावती से उनका विवाह हुआ था। तीस वर्ष तक ये राजकीय वैभव ऐश्वर्य और सुख-समृद्धि का आनन्द उठाते रहे। इसके बाद उन्होंने संसार त्याग दिया और तपस्या तथा सन्यास का मार्ग अपनाया। चौरासी दिनों की घोर तपस्या के उपरान्त समवेत पर्वत पर उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वे सत्तर वर्ष तक विभिन्न प्रदेशों में घूमते रहे और अपने ज्ञान तथा सिद्धान्तों का प्रचार करते रहे। उनके सर्वप्रथम अनुयायी उनकी माता और स्त्री थीं। सौ वर्ष की आयु में उनका निर्वाण हुआ। किन्तु तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तक जैनधर्म को कोई उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई थी। उधर जाति व्यवस्था कठोर होती चली जा रही थी। उच्च वर्ग विशेषकर ब्राह्मण वर्ग से निम्न वर्ग त्रस्त था और अपनी मुक्ति के लिये किसी दिव्य नेतृत्व की खोज में था। ऐसे समय जब कि समाज का ढांचा धार्मिक रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था, एक ऐसे दिव्य पुरुष ने जन्म लिया जिसने तत्कालीन समाज को एक नई राह दिखाई। उस महापुरुष का नाम था वर्धमान। वर्धमान के पिता सिद्धार्थ वज्जिसंघ के सात हजार सात सौ सात राजाओं में से एक थे। माता त्रिशला लिच्छवि वंश की थी। बाल्यकाल और युवावस्था में वर्धमान को ज्ञान तथा कला के सभी क्षेत्रों में राज्योचित शिक्षा दी | 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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