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________________ आर्यवज्रस्वामी के समीप रहकर विद्याध्ययन किया, आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की सार्वजनिक हित की दृष्टि से उत्तम एवं महान् कार्य यह किया कि यह जानकर कि वर्तमान के साथ ही भविष्य में भी जैनागमों की गहनता एवं दुराहवृत्ति से असाधारण मेधावी भी एक बार उन्हें समझने में कठिनाई का अनुभव करेगा, आंगमों को चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। यथाः (1) करणचरणानुयोग (2) गणितानुयोग (3) धर्मकथानुयोग (4) द्रव्यानुयोग' . इसके साथ ही आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्त्वपूर्ण आगम माना जाता है। यह आगम आचार्यप्रवर की दिव्यतम दार्शनिक दृष्टि का परिचायक है। सिद्धसेन दिवाकार द्वारा रचित सम्मति प्रकरण प्राकृत में है। जैन दृष्टि और मन्तव्यों को तर्कशैली में स्पष्ट तथा स्थापित करने में यह जैन वाड्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विद्वानों ने लिया।' सिद्धसेन दिवाकर ने तत्वार्थाधिगमसूत्र की टीका भी बड़ी विद्वता से लिखी है। इस ग्रन्थ के लेखक को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले उमास्वामिन और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले उमास्वाति बतलाते हैं। देवसेन कृत दर्शनसार का विक्रम संवत् 990 में धारा के पार्श्वनाथ मंदिर में रचे जाने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त आलाफ पद्धति इनकी न्यायविषयक रचना है। एक लघुनयचक्र जिसमें 87 गाथाओं द्वारा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दो तथा उनके नैगमादि नौ नयों को उनके भेदोपभेद के उदाहरणों सहित समझाया है। दूसरी रचना बृहनयचक्र है, जिसमें 423 गाथाएं हैं और उसमें नयों व निक्षेपों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है। रचना के अन्त की 6-7 गाथाओं में लेखक ने एक महत्त्वपूर्ण बात बतलाई है कि आदितः उन्होंने दव्वसहाव-पयास (द्रव्य स्वभाव प्रकाश) नाम के इस ग्रन्थ की रचना दोहा बंध में की थी, किन्तु उनके एक शुभंकर नाम के मित्र ने उसे सुनकर हंसते हुए कहा कि यह विषय इस छंद से शोभा नहीं देता, इसे गाथाबद्ध कीजिये। अतएव उसे उनके माल्ल धवल नामक शिष्य ने गाथा रूप में परिवर्तित कर डाला। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप समझने के लिये देवसेन की ये रचनाएं बहुत उपयोगी हैं।' अमितगति कृत सुभाषित रत्न संदोह में बत्तीस परिच्छेद है जिनमें से प्रत्येक में साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है। इसमें जैन नीतिशास्त्र के विभिन्न दृष्टिकोणों पर आपत्तिः विचार किया गया है, साथ-साथ ब्राह्मणों के विचारों और आचार के प्रति इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है। प्रचलित रीति के ढंग पर स्त्रियों [112 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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