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ऐसी कोई विस्तृत जानकारी नहीं होती। ऐसी स्थिति में यह पता लगाना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन से आचार्य ने कौनसा ग्रन्थ कब और कहां लिखा फिर भी हम मालवा में सृजित जैन साहित्य पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे, जो जैन साहित्य मालवा में लिखा गया उसको निम्नांकित भागों में विभक्त किया जा सकता है:
(1) आगमिक और दार्शनिक साहित्य (2) कथासाहित्य (3) काव्य (4) स्तोत्र साहित्य (5) अलंकार व्याकरण साहित्य (6) अन्य साहित्य
(1) आगमिक और दार्शनिक साहित्य : जैन साहित्य में आगमिक और दार्शनिक साहित्य का विशेष महत्त्व है। इसमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, छः छेद सूत्र, चार मूल सूत्र, दस प्रकीर्णक और दो अन्य सूत्र, अनुयोग द्वार सूत्र और नंदी सूत्र है। इस शाखा को भद्रबाहु की बारह नियुक्तियां, विशेषावश्यक भाष्य, बीस अन्य प्रकीर्णकों, पर्युषण कल्प, जीत कल्पसूत्र, श्राद्ध जाती कल्प, पाक्षी सूत्र, वन्दित्तुसूत्र, क्षमणसूत्र, यतिजीतकल्प और ऋषिभाषित ने और समृद्ध कर दिया है तथा इस प्रकार सूत्र-संख्या चौबीस तक पहुंच गई है। इस शाखा का अध्ययन प्रत्येक युग में बराबर होता रहा है तथा इस पर टीकाएं, उप-टीकाएं भी अलगअलग.भाषा में समय-समय पर लिखी जाती रही है। न केवल आगम साहित्य में वरन दर्शन साहित्य में भी उत्तरोत्तर समृद्धि हुई तथा जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया।
मालवा में आगमिक और दार्शनिक साहित्य की सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि है। आचार्य भद्रबाहु के कल्पसूत्र के अतिरिक्त क्षपणक ने जो किंवदन्तियों के अनुसार विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माने जाते हैं, दर्शन शुद्धि, सम्मति तर्कसूत्र, प्रमेयरत्नकोष एवं न्यायावतार ग्रन्थों की रचना की। न्यायावतार ग्रन्थ अपूर्व है। यह अत्यन्त लघु ग्रन्थ है किन्तु इसे देखकर गागर में सागर भरने की कहावत याद आ जाती है। बत्तीस श्लोकों में क्षपणक ने सारा जैन न्यायाशास्त्र इसमें भर दिया है। न्यायावतार पर चन्द्रप्रभसूरि ने न्यायावतार निवृत्ति नामक विशेष टीका भी लिखी है।' आगम साहित्य को व्यवस्थित एवं सरल करने का श्रेय आर्यरक्षितसूरि को है। आर्यरक्षित ने आचार्य तोसलीपुत्र से जैन दर्शन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया फिर गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्तसूरि तथा
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