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श्रीज्ञानपञ्चमीस्तवः . ५५ तवसमत्तीइ सत्तीइ उज्जमणयं, किज्जए भूयभावेणं अइरम्मयं ॥६॥ जिणहरे पूय-न्हवणाइयं किज्जए, निययसत्तीइ तो संघपूइज्जए। पंचगं पुत्थयाणं लिहाविज्जए, विटणग-दोरिया पंच तहि दिज्जए ॥७॥ पंच वन्नेहि पुप्फहि वर पूयणं, पंच पंचेहि नेवज्ज-फलढोयणं । किज्जए पूय पंचप्पयारा वरा, रयणहारा तहा पंच दिज्जहि वरा ॥८॥ पुत्थयाणं पुरो एम उज्जमणयं, करइ जो सावओ साविया वा सयं । रुव-लावन्न-सोहग्गजुत्तो भवे, नाणभत्तीइ भावेण सो परिभवे ॥९॥ नाणपंचमितवं निम्मलं जो करइ, विमलचंदुज्जला कित्ति तसु विप्फुरइ । नाणपूयाइ कम्मिधणं जो दहइ, सग्ग-सुक्खाण मुक्खफलं सो लहइ ॥१०॥
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