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१४) श्रीज्ञानपञ्चमीस्तवः असुरवरखयरसुरविसरनरवंदियं, पवरगिरिसिहरि उवरम्मि परिसंट्ठियं । नेमिनाहस्स नमिऊण पयपंकयं, थुणहु भत्तीइ वरनाणपंचमितवं ॥१॥ [मदनावतार] धन्न सुकयत्थ ते साहुणो अज्जिया, पुन्नकलिया तहा सावओ साविया । . सुद्धपक्खम्मि वरनाणपंचमितवं, करहि सत्तीय ते लहहि परमप्पयं ॥२॥ पंचमासप्पमाणजुया पंचमी, गिण्हए सावओ साविया वासमी । पंचवट्टीहि रत्ताहि दिवयवरं, करहि पुन्नग्घएणं तहा मणहरं ।।३।। पुप्फ-फल-गंध-वत्थक्खएहिं तओ, पुत्थयाणं करइ पूयणं सावओ। सुद्धपक्खम्मि पंचमितिहीए फुडं, कम्ममासम्मि जोडेवि करसंपुडं ॥४॥ तेण पुलयंकिओ सुहगुरुणं पुरो, पंचवयसमिय जो नाण-दसणधरो । लेइ उववास जोयंबिल-निव्विए, एगभत्तेहि दोभत्तएहिं तओ ॥५।। लहुय पंचमिविही एस जो भणियओ, पंच वरिसेहि जो पंचगुणियंकिओ।
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