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आगम
(३८/१)
“जीतकल्प” - छेदसूत्र-५/१ (मूल) --------- मूलं [७३...] ------
--------- भाष्यं [२३२०] ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३८/१], छेदसूत्र - [9/१] "जीतकल्प" मूलं एवं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचितं भाष्य
प्रत
सुत्राक
[७३]
दीप
अगुम्पाया। मीसाविजणेतमा अलोकतीएं सत्रस्थ ॥२३२०॥ अहवा वा गिविगती पुरिमेकासण तहेब आया। सत्तो पाउत्थ पणर्ग दस पाकर पीस पणुधीसा ॥१॥ मासोलह गुरु चतु उचलह गुरु पर मल अणमहो। पारचिए घनत्तो पणवादीहासण नहेच ॥२॥ लहगा मीसगाविय तहेष एस्थपिहोलिणायाएवं एवं बीए होति विष्णेयं ॥३॥ एमेच य समणीर्ण गवरं दुगवजित तुकाता । अणबही पारंची एयदुर्ग त्यि समणीणं ॥४॥ अहवा पुरिसा बुनिहा समासतो होन्तिमे उणालया। एमबिहारी व तहा गणपदवि-8 हारिणी चेष ॥५॥ गच्छा हिणिग्गया जे परिमापटितणया य जिगकप्पी। यावि सयंदा इत एमविहारिणो निविहा ॥ ६॥ ते नियमप्पमत्ता जनि आपने कहंचि कम्मुदया। नालणमेव तुने पवेति णियमायसक्सी वा॥७॥ संघयणधितिसममा सत्ताहिद्वियमहन्तजोगधरा । सुबटुंपिआवष्णा वहन्ति मिरगुग्गहं सर्च ॥८॥ आलोयणोषयुत्ता ते आलोयनाए सुनमंति। तेसि जानु मूलं करेन्ति सतमेव सुजाति॥९॥ अणिगृहियवतविरिया जहवादीकारया य ते धीरा। उत्तमसदसमग्णागया य सुनिने पियमा ॥ २३३०॥ गणपडिबदा दुबिहा जिणपडिकवी या हॉति राय। जिणपहिरूनी दुषिहा विमुदपरिहारहालंदी ॥१॥ ते णिचमप्यमत्ता जति आवजे कहंचि कम्मुदया। तक्खनमेवरतं पट्टवेन्ति कप्पद्वियसगासे ॥२॥ संपवणचिनिसममा सत्ताहिड्डियमहंतजोगधरा । सुचपि आपणा वहति णिरणुग्गहं धीरा ॥३॥ अङ्गविहा पहचणा तसि आलोषणावि मूलना। पडत धीरा सुज्झनि विसुज्मचारिला ॥४॥रावि विसद्धरा तेमुचि जनि कोइ किंचि आवजे। नक्सणमेच हुने पवेति णियमा गुरुमगासे ॥५॥ एत्य य पडवर्ण पति आयरिओ
पिहिमिगं अजाणतो। लंह य अपाणं पिच सीसं ण सोहेति ॥६॥ पुरिसेति गतं दार इमं तु पडिसेषणं पपक्वामि। सा पुण चतुहा सेवण आउहियमादिमासु ॥७॥ आउहियाय पादपप्पमायकप्पेहि वा गिसेविजा। द खेल कालं भावं या सेवओ पुरिसो।मू-७४॥८॥ आउहिया उपेचा दप्पो पुण होति वग्गणादीओ। केवपादि पमाओ अहव कसायाविओ|
ओ९॥ कसाय चिकहा चियडे इदिय गिर पमाप पंचविहो। एस पमायो भणितो कप्पं तु इम पवाखामि ॥२३४०॥ गीयत्यो कहजोगी उपउत्तो जयणजुत्तों सेबेजा। गाहाप्रापच्छदसत दणमो उ समासतो वोच्छं ॥ १॥ बच्चं आहारादी खेतं अदाणमादि णातच्च । कालो ओमादीओ हागिताणादि भावो त ॥२॥ जंजीयवागमन एवं पातं पमापसहि-18
यस्सा एनो बिय ठानतरमेग बढेज परयो । मू. ७५॥३॥ जं जीतदाण भणियं गिबीतियमादि अहम अंते। ततियपडिसेषगाए पमायसहियरस एवं न॥४॥प्पपडिसेपणाए पुरिमइदादी न होनि दायाला असे दस दिजा आउहीए उबोच्छामि ॥५॥ आउट्टियाए टागंतरं व सद्वाणमेव वा दिजाकियेण परिकम तमयमा रिणि िम. ७६॥६॥ आउहियाचराहे एकासनमादि अंत पारसमं । पाणनिपायवराहे सहाण होति मूलं तु ॥७॥ कप्पेग उ सेवाए तह मुदो अब मिष्ठकारं तु । अहया नदुभयमुनं आलोयपरिकमाहिनि॥८॥ आलोयणकालम्मिपि संकसविसोहि भावनो णात होणवा अहिय वा नम्म वापि देशाहिम.७७॥९॥ आलोयणकामय गृहति आमा विजती। किति। सो सकिलिङ्कचित्ती तस्सऽहित दिज ऊर्ण वा ॥२३५०॥ जो पुण आलोएन्तो काले संगमुरगतो जो उ। जिंदणगरहादीहि विमुदचिलो तु नस्सऽपं ॥१॥ जो पुण आयोएन्नो णवि गृहनि गवि य दिए जोतु। सो मज्झिमपरिणामो तस्स उ देजाहि तम्मनं ॥२॥ इति दवादिषहणे गुरुसेवाए य बहुवर देजा। हीमनरे होणारे होणना जाप झोसोनि
७ ८॥३॥ इति एस दस सेने काले मावेस बहूगुणेमू तु । गुरुसेवा तु पहाणा एतेसु बहुन दिजा ॥४॥हीगतरे होणतरंतिदेज शादिमादिहीणेहिं । नह नह हीण देजा मोEसेशप सबहीणस्स ॥५॥शोसिजति सुपपिहुजीएणष्ण तयारिह रहयो । वेयापचकारा प दिजति साणुग्गहतरं का ॥ मू०७९४६ ॥ सोसण खवणा मुंग एगहा ने मुगए।
कम्स जणव तुबहते जह पद्दपिए उ उमासे ॥ ७॥ पंचदिणेहि गएहिं पुगरवि जा सो उ अण्णमावजे । तो से तं नहिं उम्भति एवं प्रपणात तरस भो॥८॥ यावच कोतो जति आरजति किषि अण्णा जापतिल से दिजतिजगित्थरली तु सो बोई॥९॥ काल ठावित विक्से पिस्थिपणे त काहिती सीता एयवारिह अमित अरणा दारिह पोछ । २३६ नगरिजीनवास प असमत्यो तवमसरहन्तो पावसान जो ण दम्मति अतिपरिणामप्यसंगी यम. सुबहतरगुणसी रानिय पसजमालो । या पासत्यादी जोऽविध जतीण पहिलपिओ बहुसो ॥ ८१॥२॥ उकोर्स नवभूमी समतीजो साबसमचरणी या पणमादीले पापतिजा पनि परिवाओ।म.८२॥३॥ नवनिओ देह न अहं समयोति गपिओ एस। नपत्रसमत्व गिलागो बालादी अब असमत्यो ॥४॥ जो 3 ण सदहति तयं अहवावी जो नरेश गरि दम्मे। अतिपरिणामो जो हा पुणो पुणो सेपति पसंगी ॥५॥ उत्तरगुण बहुगा न पिक्सिोहादिगा उगविहा । भंसति विणासेती पुणो पुणो जो तु ताई तु ॥६॥ छेदावलीनी वा परेनि पसजनी य जो तेस। jा अहणा पासस्थादी आदीसहेणिमासु ॥ ७॥ पासत्योसम्णो वा कुसील संसन अहर गीजो बा । याचबकराइण जतीण पडितप्पिओ बहसो ॥८॥ उकोसा नवभूमी आदिजिणियस
होति परिस तु। ममिमगाण जिणाण अङ्ग उमासा भवे भूमी।९॥ चरिमस्स जिणिदस्सा उकोसा भूमि होति उम्पासा। एवं तू उकास समतीनो चरणसेसोय ॥२३७०॥ (२६४) -०५६ जीनकन्यभायं -
भनिदीवरसागर
अनुक्रम [७३]
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अत्र प्रतिसेवना एवं छेद-प्रायश्चित् वर्णयेते
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