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________________ आगम (३८/१) “जीतकल्प” - छेदसूत्र-५/१ (मूल) --------- मूलं [३६] --- ------- भाष्यं [१६६७] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३८/१], छेदसूत्र - [५/१] "जीतकल्प" मूलं एवं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचितं भाष्य प्रत सुत्रांक [३६] दीप अनुक्रम ने विजा चिगिति, अप्पाणं ते चिगिच्छमा हितमाहित होति दहा इह परलोगे य होति पाउमंगो। इहलोग हितं ण परे किचि परे मेव इहलोए॥८॥ विचि हितमुभयली-- एणोमयसोए चनुष्यभो भंगो। पदमगर्भगो तहियं जे दवा होम्ति अविरुदा ॥९॥जह खीरवहिगलादी अणेसणिज्जा परतद्रेवा। मुंजने होति हियं हाईण पुणाई परलोए ॥१६७०॥ अमणुग्णेलणगई परलोमाहित ण होति इहलोगे। पत्थं एसणसुवं उभयहि होति णात ॥१॥ अहितोभयलोगम्मी अपत्य असणिज चा अहवापि रत्तदुद्दो भुजति कएनो मियं वो ॥२॥ अदमसणस्स सांजणस्स कुजा दवस दो भाए। वायुपवियारणहा छम्भाग ऊणगं कुजा ॥३॥ सीयो उसिणो साहारणो य कालो निहा मुयो। एएवं जीपी बाहारे होतिमा मना ॥ ४॥ एगो दबस्स भागो अपहिलो भोयणास वो भागा। बड्डति व हायनि व दो दो भागा तु एकेके ॥५॥ एत्य तु तनियचतुत्या दोण्णिादि अणवहिता भरे भागा। पंचम छटो पदमो बितिओ व अचहिना भागा ॥६॥ एवं तु मियं भणियं एसोपी होणगं भवे अपं । एप पमाणाऽमिहितं संगालादी अनो बोळ ॥ ॥ समाले पा. गुरुगा आपनी वाण होवऽमल पउलहूना तु सपूमे आवनी दाणमायामं ॥णिकारण भंजन्ते एत्पचि लहमा तु दाणमाचार्म। चिनियादेसे नही आपली दाण परिमदद 3 ॥९॥ गपि भुजह कारणलो एन्थवि लहुगा उ दाणमायाम । सँगालाविण कमसो सरूपमिणमो पक्क्तामि॥१६८०॥जह इंगाला जलिया रहति तस्य धर्ण परियाह थिय रागिगाला उहंनि चणिधर्ण नियमा॥१॥रागेण सहगाल जे आहार मुशिओ साहू। मुदढ़ सुसभित गिदं सुपक मुरस अहो सुरहिं ॥२॥ रागनीपजलिओ मुंजतो कासुयंपि आहार। मिहार्दिदगालगिर्भ कोनि परणिधर्ण सिणं ॥३॥ मणितं संगालेयं महुणा बो सघूमर्ग पगते। केबलवियणते तू धूमापंत वहा गर्म ॥४॥जह पापि चिनकम्मं घूमेणोरनयंग सोभा उनिह पूमदोसरन चरणचिन सोभए माले ॥५॥ दोसेण समं न जाहारेति साह जिंदंतो। विरसमलो कुहित रोरा भोपसं(भपसंति पण एवं ॥६॥ दोसम्मीविज लेनो अपनियधूमधूमि परण। अंगारमेलसरिसं जाण भवति गिद्दहति ताय ॥ ७॥ रागेण सईगाल दोसेण सधूममं मुणेया। रागहोससहगलं गन्हा तु ण होति भोत्ता ॥८॥ आहारति तबस्सी विगलिंगालं च विगयधर्म चामाणज्जायणणिमिन एसुपएसो पश्यणा ॥९॥ मणितं सपूममेयं एतो वोच्छामि कारणहार। पुन परिकमंतो चरिमुस्सग्गे विचिन्तेति ॥१६९०॥ भोला कारणम्मी कि अस्थि अहब नस्थि जड अस्थी। तो मुंजेगा साह के पुण ते कारणामुणम् ॥१॥हिं कारगेहि साह आहारतो आवरति धम्म। उहि पेच कारणेहि मिहतो उ आयरति ॥२॥ वेवण वेयापचे हरियडाए य संजमदाए। नह पाणवत्तियाए छई पुण धम्मचिन्ताए ॥३॥ गस्थि उहाएं सरिसिया वियणा मुंजेज सप्पसमणई। छादो पेयापर्षण तरति कार्ड अयो मुंजे॥४॥ इरिथ चण सोडेनी मुहितो ममाटीय पेच्छ अन्धारं। चामो वा परिहायर पेहादी संजम गतरे ॥५॥आयुसरीरप्पाणादि उसिंह पाण नताली मोनु निवारण नेर्ण भुजेजा पाणवत्तीयं ॥ ६॥ धम्मज्माण ग तरति चिन्ले पुरत्तकासम्मि। आवाची पंचविहग तरति समाय काजे॥७॥ एतेहि कारणेहि उहि आहारेति संजतो णियमा । कहिं पेव कारणेहिं जाहारेती इमेहि तु॥८॥आतके उपसग्ने तितिक्सया बमचेरगुत्तीए। पाणिदया गपहेक सरीरपोपडेयणडाए ॥५॥ आर्यका जम्मारी सम्प्प णे ग भुने भणितं पा सहमुपाया बाही पारेला अहमादीहिं ॥१७०७॥रावासमायादी उपसमो तम्मिपी ग भुजेजा। सहमहान तितिक्सा चाहिजते तु चिसएहिं ॥१॥ भगिने व जिणिदेहि अपि आहारं जवी हु बोमिंटने। लोगेऽपि भणिय विसया विणिवत्तते जणाहारे ॥२॥ तो बभत्सनहा जवि मुंजेजाहि एपमाहारं। पाणदय वास महिया पाउसकाले वाणवि मुंजे ॥३॥ तबहेतु पात्यादी जाच तु छम्मासिओ नको होति। उई निभिग्मभरो छड्डेतुमणो सरीरं तु ॥४॥ असमस्यों संजमस उ4 कतकिमोवावरं व ती देई । छड्डेमित्तिन भुंजह सबह वोच्नेय आहारं ॥५॥ सोलस उग्गमदोसा सोलस उन्मादणाएं दोसा तु। वस एसणाएँ दोसा संजोवणमादि पंचेच ॥ ६॥सीयालीस एनेसोपी विडिला मोरोसा जेहि अविसद पिंडे चरणुपयातो जतीण भवे ॥७॥ एतहासचिमुको मणिनाऽहारो जिरोहिं साहणे पावसानजोगा जेवण हायतिता कुजा ॥८॥ उमाममादरीण कारणपजन्तपत्थडो एस। लक्सण आपत्ती दागमेव कमसो समक्लाय ॥५॥ अहुमागाहानुबोच्छामी अक्सरत्यमिणामो तू। उदेस कम्म मोनु चरमतियं होति सेसं तु॥१७१०॥ पासंडाणं परम वितिय समगाण ततिय साधूर्ण। चरिमतिय एवं तृ कम्पती आहकम्म तु॥१॥ पासंदमीसजाए साहमीसे य सघरमीसे याबा-13 परपाडियात विवाहासाकोसका आहड सपचवाय निराहना जत्य होति आयाए। लोभेण जो एसति सो होती लोमपिडो तु॥३॥सोसपि एस सिममादिलो-121 अपनी पत्तेचे पाय सोही एल्यं तु भत्तई ॥४अति अणंतणिक्सित्तपिहियसाहरियमीसियादीसं । संजोग सड़माले इक्हि लिमिते प समणं तु ॥ म160५॥ अतिर गिर तर भणतितकायो नहोति वणकायो। पलिमादी किची मिक्सित्ते होति एवं तु॥६॥ पिहित अर्गतकाए साहस्पिमतमीसिय पानि। आदिग्गहणेणं पुण अपरिगएतका१०४३ जीनकन्यभाये - [३६] मुनि दीपरताना ~37~
SR No.004138
Book TitleAagam 38 A JEETKALP Moolam evam Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDeepratnasagar
Publication Year2015
Total Pages59
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size20 MB
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