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आगम
(३८/१)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [3]
"जीतकल्प” छेदसूत्र-५/१ (मूलं)
मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ...आगमसूत्र
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[३८ / १], छेदसूत्र
से दुवा] राहणावा तस्स अंतकिरिया व साहू करेन देवोववत्ति वा ॥ ४॥ एमादीहि बहुविहं दुविहं तिविहेहि ते महाभागा घोरेहिं उक्समोहिं पालिताविया ॥ ५ ॥ पुत्रावरदाहिणउन्नरेहि बाएहि आपर्यंतहि जह गवि कंपड़ मेरू तह ते झाणाओं न चडिंति ॥ ६ ॥ पदमम्मिय संपवणे पता खेलकुदसामाना तेसिपिय वोच्छेदो चउदसपुडीन योच्छेदे ॥ ७॥ एवं पावगमं विप्यहिकम्मं जिहिं पण्णत्तं तित्ववरगणहरेहि य साहूहि य सेवियमुदारं ॥ ८॥ एवं जहागुरूवा संपतिकालम अस्थि जह सोही वितिय सो हिकरा तं सज्ञेयं समस्वायं ॥ ९ ॥ एसाऽऽगमत्रहारो जहोबएस तहकम कहिओ। एतो सुतववहारं सुण वच्छ जहाणुपु ॥ ५६ ॥ णिज्जू चोरसपुविण जं भवाणासु । बहादुगर गवणीयं ॥ १ ॥ जो सुतमहिजति बहु सुत्यं च णिउण ण याणाति कप्पे महारधियण सो प्रमाणं सुधराणं ॥ २ ॥ जो सुनमहिजति सुत्
वाणानि कप्पे पारम्य सो उपमाणं तराणं ॥ ३॥ कप्पस्सव विहारस्सेव परमणिउणस्स जो अत्यो न जाणति सो हारी गुन्यातो ॥ ४ ॥ कप्पम्स बिहारस्सेव परमणिउणस्स जो अत्यतो विजापति यवहारी सो अणुष्णातो ॥५॥ एसो सुतवहारो जहोबएस जहकर्म कहितो आणाएवमहारं सुब जहरू वीच् ॥ ६ ॥ समणस्स उभिम सदरमकरणे अभिमुहस्स दूरत्या जत्थ मने उत्तीसगुणा उ आयरिया ॥ ७॥ अपरकमो मि जातो संतुं कारण तु उत्पष्णं अहारसमायरे वसणगते इच्छिमी आण ॥ ८॥ अपरकमो तस्सी तुंबते सोहिकरमूलं सीसं पेसेति तहिं जहिच्छ सोहिं तुमसमीचे ॥ ९॥ सोबि अपरक्कमगती सीसं पेसेति धारणाकुसल गातु नहिं जो जोगो इमेण विहिणा परिचिता ॥ ५७० ॥ अपरक्कम य सीस आणा परिणाम परिच्छेखा सक्से व बीकाए सुने वामोहणा (णाचा महा महीरुह भणित देवे अपरिणतो बेति तयो णो वहति रुक्ख आरोढुं ॥ २ ॥ किं वा मारेको अत? तो बेहदेव रक्खातो अतिपरिणामो भणती इस हो जहवेसिन्छा ॥ ३॥ बेति गुरू अह तं तु अपरिगय अत्ये अ मासले एवं किं व मए भणितो आम्ह रुक्ले तु सम्बिते ॥ ४ ॥ तबणियमणानरुक्त्वं रुहि भवमण्णावतं संसाराग मूलं देहि मए भणितो ॥ ५ ॥ जो पुण परिणामो खलु आर मणितो तु सो विचितित पावमेते जीवाण यावपि ॥ ६॥ किं पुण पंचिदविका तुम्हणवयसि नृ वारेति गुरुवा पैने ॥ ७ ॥ एवाणच बीवाई मणिते पडिसेह अपरिणामो तु। अतिपरिणामो पोइल बंधूण जगतो तत् ॥ ८॥ पचा गुरू तंजदिवाणेही विरोहसमत्थाई सचित्ताई विभणियाई ॥ ९ ॥ परिणामो हु तत्यवि भगती आणेमि केरिसाई तु? किनियमिना वा विरोहमविरोजग्गा ॥ ५८० ॥ सोचि गुरूहि भणिओ ग नाम फलं पुणा भणीहामी हसिओ व मए वाऽसी बीमसत्यं व भणितोसि ॥ १ ॥ पदमक्सरमुदेस संधी मुत्तस्य तदुभयं पुट्ठो अक्खर वंजण कति स जहा भणितं ॥ २ ॥ एवं परिच्छिऊ जोगां नाऊण पेसवे तं तु यथाहि तस्सगास सोहिं सोऊन आगच्छ ॥ ३ ॥ अह सो गयो उ नहियं नम्स समासम्म सो करे सोहि दुनिय कविदं निविहेकाले विगभावो ॥ ४॥ दुहि तु दप्यकप्पे निहिं णाणाइणं तु अाए दये लेते काले भावेय चउहिं एवं ॥ ५॥ तिविह अनीयकाले पष्पणे व सेवियं जंतु सेविस्स वा एस्से पागडभावीगडभायो ॥ ६ ॥ किं पुण आलात? अतियार, सो इमो व अतियारो छकादीओ खलु मातथ्य जाणुपुथ्वी ॥ ७॥ वयचकं कायलकं कपो गिहिमायणं पलियंक गिसेला व सिगाणं सोहबनणं ॥ ८ ॥ तं पुण होजासेवियदप्पे अहव होज कप्पेण दप्पेण दसविहं तू हणमो च् समासेणं ॥ ९ ॥ प प गिरा लंब चियते अपत्य की सत्ये अपरिच्छ अकदजोगी अमाणुताची व गीतको ५९०॥ यायामवग्गणादी विकारण धावणं तु दप्पो उ कायापरिणतगणं अकप्पो जंवा अगीने ॥ १ ॥ सारखडिनो गागादसमुलर मोक्खन जह पुरिसो बलियाण विसमाओ ॥ २ ॥ णाणादी परिवहदी व भविस्सनि में अवयो विनयं पि सायणिसेवा होति ॥ ३ ॥ जा पुर्ण विकारणयो अपसत्थालंबणा य सेवा उ अमुवि आपरियं को दोसो वा निरालंब ॥ ४॥ जं सेवितं तु विलियं यादी अपर होवि पुणो तं पिय वियत्तकियो शिसेवंती ॥ ५॥ लवण कायभोईनि होति अपत्यो। किं पुण जो अविसुद्ध निसेवाए मादा ? ॥ ६॥ सेवंती नृ कि लए लोउरम्म यविरुद्ध परपल सपकले वा पीसत्याणमल ॥ ७॥ अपरिच्छिनुमान विमानो उ होइ अपरिच्छो तिगुणं जोगमका वितियासेवी अफडजोगी ॥ ८ ॥ विनियपदे जो तु परं तावत्ता तपती पच्छा। सो होति अणणुतावी किं पुण दप्पेण सेविता ॥ ९॥ करण भए तु संका करणे कुसंक कथाई इहलोयस्स न नाय परोए वाऽभया एसा ॥ ६०॥ एसा पियसेवा इसमेय समासती समवाया। एलो कपियसेवंचवीसविहा इमाऽऽहं ॥ १॥ दंसणणाणचरिते तवपचयणसमितिगुनिहे वा साहमिच्छा कुली गणसेव] १० ॥ २ ॥ संघस्साऽऽपरियरस य असा उदयचोरसावयनयकंताराऽऽतीवसणे २४॥ ३ ॥ भावार्ण सत्थामढाए सेवाए जंतु। १०२१ जीतायं -
मुति दीपनगर
भाष्यं [ ५५५ ]
[५/१] "जीतकल्प" मूलं एवं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचितं भयं
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